क्या हम पढ़ लिखकर मूर्ख बन रहे हैं?
मेरे पास एक ग्रामीण रोगी आते हैं। वे बहुत ही ओजपूर्ण और सभ्य हैं। मुझे उनसे बहुत लगाव है और मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ। वे जब भी आते हैं क्लीनिक, तो मैं उनसे कम से कम 10 मिनट तक तो बात करता ही हूँ, कुछ ज़िन्दगी के सबक पाने के लिए। उन्होंने मुझे एक बार बताया था कि डॉ साहब मेरा पोता एमबीए करके एक नौकरी करने लगा 25 से 30 हज़ार रुपये महीने की। वह दीपावली पर अपने लिए एक पेंट खरीदकर लाया और सबको खुशी खुशी बता रहा था कि यह 5500 रुपये कीमत की किसी बहुत बड़ी कंपनी की है। मैंने पूछा कि यह इतनी महंगी क्यों हैं बेटा? उसने जवाब दिया कि दादा जी इसमें शल नहीं पड़ते…रिंकल फ्री कुछ बता रहा था वह। मैंने फिर उससे पूछा अच्छा बेटा तुम इसे साल भर में कितनी बार पहनोगे? उसने कहा 12 से 15 बार तो पहनूंगा ही। मैंने फिर कहा कि बेटा अगर मान लिया कि 1000 वाली शल पड़ने वाली पेंट तुम खरीदते और उसे 15 बार 5 रुपये लागत की इस्तरी (प्रेस) करनी पड़ती तो खर्च आता 75 रुपये। तुमने 75 रुपये बचाने के लिए 4500 रुपये ज्यादा खर्च कर दिये। इतने में तो मेरे बेटे 5 और जीन्स आ जाती, जिन्हें तुम ज्यादा बार और ज्यादा समय तक पहन सकते थे। उन्होंने मुझे आगे बताया कि डॉक्टर साहब 150 रुपये की धोती, 250 रुपये का कमीज़ (और 150 रुपये मेरे गांव का टेलर मुझसे सिलाई लेता है) ऐसे में 550 में मेरी पूरी ड्रेस तैयार। सफेद कपड़े पहनता हूँ इसलिए ज्यादा कपड़े भी नहीं लगते। कुल 8 जोड़ी कपड़े हैं। मतलब मेरे पोते की एक पेंट से भी कम पैसे में मेरे 8 जोड़ी कपड़े और वो भी साल-दो साल आराम से चल जाते हैं।
उपरोक्त उदाहरण हमें बता रहा है कि मैं और आप आधुनिक बनने के लिए कितना बेवजह खर्च कर रहे हैं। मूर्खतापूर्ण। ज़रूरत से कहीं कहीं ज्यादा। ब्रांड के चक्कर में हम घनचक्कर हुए जा रहे हैं। क्या शहर और क्या गांव, क्या बच्चे और क्या बूढ़े, क्या पुरूष और क्या स्त्री…सब के सब दिन रात कमा कमाकर इन ब्रांड को देकर आ जाते हैं। खुद को गरीब और इन्हें अमीर बनाकर। मुझे मेरे दोस्त के जूतों में अब तक समझ नहीं आया कि वे क्यों 39000 रुपये कीमत के थे। मुझे नहीं समझ आया कि क्यों मेरा एक परिचित ज़रा में टूट कर बिखर जाने वाले चश्में पर 90000 रुपये खर्च कर देता है! लाखों की घड़ियां, पर्स, कोट पेंट ओह हो…।
हम सब थोड़ासा रुके, सोचे और समझे कि यह मूर्खता क्यों? पढ़ लिखकर हम इन ब्रांड के दीवाने क्यों बन गए? जबकि अनपढ़ लोग आराम से कम कीमत वाले कपड़ों और जूतों में मस्तमौला जीवन बिता रहे हैं। दिमाग से दिवालिया इन सेलेब्रिटीज़ की इतनी भेड़ जैसी मूर्खतापूर्ण नकल क्यों? अमूल्य समय और मेहनत लगाकर कमाया गया यह धन हम क्यों लूटा रहे हैं? आखिर क्यों एक रुपये की वस्तु को 100 रुपये में खरीद कर इतरा रहे हैं? क्यों?क्यों? क्योंकि हम बड़े ब्रान्ड्स द्वारा नियंत्रित मस्तिष्क वाले व्यक्ति बन चुके हैं। हमारी सोच, पसंद और विचारधारा अब किसी और के द्वारा निर्धारित कर दी गई है।
पुनश्च: मुझे पता चला कि एक इंटरनेशनल ब्रांड बांग्लादेश में 13 रुपये की लागत में अंडरवियर बनवाकर दुनिया में 300 से 500 रुपये में बेचती है सिर्फ एक फुटबॉल सितारे से एड करवाकर। यह लूट है और साथ ही अन्याय और बेईमानी भी। लेकिन यह हम पढ़े लिखे और सभ्य लोगों की स्वेच्छिक मूर्खतापूर्ण खरीदारी है इसलिए उस कंपनी पर कोई केस भी नहीं लग सकता।