हम क्यों डरते हैं?
कड़कड़ाती बिजली की आवाज़ हो, शेर की दहाड़ हो, सामने से कोई तेज़ आती गाड़ी हो, नारे लगाती उत्तेजित भीड़ हो, किसी ज़हरीले जानवर के दर्शन हो या फिर कोई दहशत भरी खबर हो हमें डरा देती हैं। इनसे हमारी धड़कनें बढ़ने लगती हैं, पसीने छूटने लगते हैं, सांसे तेज़ चलने लगती हैं, हमारे हाथ पैर फूल जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? हम डरते क्यों हैं? क्या डरना एक ज़रूरी चीज़ है या फिर गैरज़रूरी?
मानव विकास यात्रा के साथ साथ में ही हमारे मस्तिष्क का विकास हुआ। हमारे शरीर के हर एक अवयव का एक ही कार्य है हमारे जीवन को बचाना। यदि आप गौर से थोड़ा सा सोचेंगे तो पाएंगे कि हमारा हर अंग और हर कोशिका हमें जीवित रखने के लिए दिन रात मेहनत कर रहे हैं। मस्तिष्क का एक प्रमुख कार्य है हमारे जीवन को बचाने के लिए विभिन्न खतरों से हमें आगाह करना। वह अपने अंदर तरह तरह की यादें, सूचनाएं और डेटा इकट्ठा करता रहता है। यह हमारे स्वयं के भी होते हैं और आनुवंशिक भी जो हम हमारे पूर्वजों से अर्जित करते हैं। जैसे आदिमकाल में लोग बिजली गिरने, सांप के काटने, हिंसक पशुओं के शिकार हो जाने से मरते थे तो हमारा मस्तिष्क जब यह सामने देखता है या हमारी कोई इंद्रिय इन खतरों के संदेश लेकर आती है तो हमारा दिमाग इस मुसीबत से हमें बचाने के लिए अलर्ट या सचेत करता है। यह सचेत करने की प्रक्रिया ही होती है जिसे हम ‘डर’ कहते हैं।
आपने देखा कि एक सांप ने एक व्यक्ति को डसा और वह मर गया। आपके दिमाग ने यह डेटा अपनी स्मृति में सुरक्षित कर लिया। अब आप जैसे ही सांप को देखेंगे आपको डर लगने लगेगा। डर में या तो आप उसे मारने का प्रयत्न करेंगे या फिर उससे दूर भागने का। यही ‘फ्राइट एंड फाइट’ का सिद्धांत कहलाता है। इसी प्रकार का डर आपको कोई बात सुनकर, कोई दृश्य देखकर या कोई खबर पढ़कर भी हो सकता है।
मेरा एक रोगीे जो कि एक ट्रक ड्राइवर था ने कई बार सोशल मीडिया पर भीड़ द्वारा ड्राइवर को पीटने वाले वीडियो देख लिए। अब वह भीड़ में जाने से डरने लगा। डर इतना बड़ा कि अब वह ट्रक चलाना ही छोड़ चुका है। लेकिन भीड़ से डरना उसे अब भी सता रहा है। वह डर या फोबिया का मरीज़ बन गया है। सुनामी के वीडियो देखकर एक युवा समुद्र से डरने लगा था, भूकंप के वीडियो देखकर एक महिला ऊंची इमारत से डरने लगी थी। यह सभी इसलिए डर रहे हैं क्योंकि दिमाग अपना काम कर रहा है— आपके जीवन को हानि पहुंचाने वाले खतरों से आपको आगाह करने का। वह अपनी जगह सही है। हम इतने ज्यादा डरपोक इसलिए होते जा रहे हैं क्योंकि हम उसे डर को बढ़ाने वाली बातें दिनरात दिखा रहे हैं टीवी, मोबाइल, इंटरनेट और न्यूज़ पेपरों के माध्यम से। वह सूचनाएं इकट्ठा कर करके आपको बताता है और आप वास्तविक डर नहीं होने पर भी डर महसूस करके डर के मरीज़ बन जाते हैं। हम डर कर फ्राइट या फाइट वाला कार्य भी नहीं कर पाते क्योंकि स्क्रीन या पेपर पर देखे गए डर के कारणों से आप कैसे लड़ेंगे और भागेंगे। यह नकारात्मक ऊर्जा हमारे अंदर ही रह जाती है और हमारे शरीर तथा मन को उजाड़ने लगती है। क्राइम प्रोग्राम हमारे मस्तिष्क में डर भरने वाले नंबर वन क्रिमिनल हैं। उनके शुरू होने से पहले सत्यघटना पर आधारित पढ़ लेने से हमारा मस्तिष्क उसे सच मान कर हमारे लिए सुरक्षा के डेटा इकट्ठा करता है और फिर शुरू होता है डर का सिलसिला। नौकर से डर, टैक्सी वाले से डर, पत्नी से डर, पति से डर… सभी पर शक़ और सभी से डर। हर आहट डराने लगती है और हर दस्तक डराने लगती है।
चूंकि हम मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए हम जानवरों की तरह केवल मृत्यु से ही नहीं डरते अपितु सामाजिक प्रतिष्ठा चली जाने या किसी प्रियजनों की मृत्यु या किसी भावी नुकसान से भी ख़ौफ़ खाते हैं। इनसे संबंधित खबरें भी हमें डराती है जैसे किसी अन्य के बच्चे की किसी बीमारी से मृत्यु होने पर अपने बच्चे के साथ भी कोई अनहोनी हो जाने का डर।
प्रिय पाठकों बेवजह के डर से बचने के लिए डरावने और नकारात्मक वीडियो, खबर, पोस्ट्स, प्रोग्राम और व्यक्तियों से दूर रहें। और अगर देखें भी तो अपने दिमाग को बता दें कि ये केवल खबरें हैं इनसे डरने की ज़रूरत नहीं है।