फेक न्यूज़ Vs हमारा मस्तिष्क
हमारा दिमाग जिस बात पर भरोसा करना चाहता है उसे पुख्ता करने के लिए वह सुबूत ढूंढता है, वह उसके लिए सकारात्मक तथ्यों को खोजना चाहता है जो उसके विश्वास को और मजबूती दे। जब उसे सुबूत मिलते जाते हैं तो उसका भरोसा पक्का होता चला जाता है चाहे वे सुबूत सच्चे हो या झूठे। यदि उन सुबूतों में थोड़ा सा भावना या आस्था का पुट भी हो तो फिर हमारा दिमाग कुछ भी सुनने को तैयार ही नही होगा वह अपने भरोसे के आगे सभी को झुठला देगा …चाहे आप उसे अपेक्षाकृत कितना ही बड़ा अन्य सच क्यों न दिखा दे। यह मनोविज्ञान एक अच्छा नेता और एक बाबा बहुत अच्छे से जानता है। इसी के दम पर वे अपने समर्थकों या भक्तों का जमघट खड़ा कर लेते हैं।
हमारा यही मनोविज्ञान हमें #फेक_न्यूज़ पर भरोसा करवाता है और नफरत की राजनीति को आसान बना देता है…। हम राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के इसीलिए भक्त कहलाने लगे हैं क्योंकि हम उन पर अंधा भरोसा जो करने लगे हैं। इतना अंधा की हम सत्य को देखना ही नहीं चाहते जबकि हमारे पास उसे देखने की शक्ति मौजूद है।
हम किसी मज़हब के लोगों से नफरत करना चाहते हैं और उस मज़हब के संकेत धारण किये (जैसे मुसलमान की दाढ़ी टोपी या हिन्दू का भगवा पहनावा या कोई बेंड) किसी व्यक्ति का एक नफरत या मारपीट या गालियां देता कोई वीडियो हमारे व्हाट्सएप या फेसबुक पर आते ही हमारा मस्तिष्क उसे सुबूत मानकर उस पर भरोसा कर लेता है… और हमारी नफ़रतें एक खास वर्ग विशेष के लोगों के प्रति बढ़ने लगती है…हर झूठी सच्ची खबर, तस्वीर या वीडियो के साथ।
हमारा दिमाग भरोसा करना चाहता है क्योंकि उसका यही एकमात्र कर्म है अब यह हमें चाहिए कि हम उसे किस पर उसे भरोसा करवाना चाहते हैं- सत्य पर या झूठ पर?
अफवाहों से खुद को सुरक्षित रखें क्योंकि यह अब एक कलयुगी सत्य बन चुकी है… जानलेवा झूठा सत्य।