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मैं अक़्सर सोचता हूँ कि क्या कोई व्यक्ति केवल अपने अच्छे कर्मों के आधार पर महान बन सकता है? और हमेशा गहराई में जाकर पाता हूँ कि बिल्कुल नहीं, केवल कर्मों के आधार पर महान नहीं बना जा सकता। महान बनने के लिए एक पूरी मशीनरी, एक पूरी योजना और बहुत बड़ा जनसमर्थन चाहिए होता है वर्तमान में भी और भविष्य में भी। आपके अनुयायी या आपके फॉलोवर ही आपको महान बनाते हैं। अगर अनुयायी स्वयं सिस्टम बन जाए तो आपको महान कहलाने से कोई नहीं रोक सकता। हम ऐसे अनेक उदाहरण देखते हैं जिसमें कि तथाकथित महान व्यक्ति ने कुछ भी महान नहीं किया लेकिन उनके अनुयायी उसे महानता की पदवी दिलाने पर तुले हुए हैं। मूर्तियों का निर्माण हो, बड़े बड़े संग्रहालय का निर्माण हो, सड़कों और शहरों के नाम उस व्यक्ति के नाम पर रखना उसे महान घोषित करने के हथकंडे हैं।

मान लीजिए कि एक पराक्रमी योद्धा है, वह युद्ध में इस वीरता से लड़ता है कि उसका महान कहलाना लगभग तय है लेकिन अंत में जीत विरोधी सेना की हो जाती है। अब विरोधी सेना क्या उसकी शान में वीर रस से परिपूर्ण कविता या शायरी का पाठ करेगी? नहीं, कदापि नहीं। अब वह योद्धा इतिहास में गुम हो जाएगा… वैसे ही जैसे आज की औंस की बूंदे दोपहर में गुम हो जाती हैं। अब यदि बाज़ी पलट जाती और उस वीर योद्धा की सेना जीत जाती तो? यकीनन उसके देश और राज्य वाले उसे महानतम घोषित कर देते। तो प्रिय पाठकों महानता एक भ्रम है। महानता काल, स्थिति, परिस्थिति और सबसे बड़े अनुयायियों के लाभ पर निर्भर करती है। ‘आपको महान बनाने से किसी को क्या लाभ होगा’ यही मुख्य वजह होगी आपके महान कहलाने की। आपकी महानता से किसी को भी कोई लाभ नहीं है तो आप भुला दिए जाओगे। कोई आपका नाम लेवा नहीं होगा जैसे कि दुनिया ने असंख्य बेहतरीन लेखक, कवि, समाजसुधारक, नेता, योद्धा, रणनीतिकार और गुरुओं को भुला दिया है।

आप किसे महान मानते हैं महत्वपूर्ण यह है। महत्वपूर्ण यह हरगिज़ नहीं है कि आपको किसे महान बताया जा रहा है। जाने और समझे कि किसी व्यक्ति को महान बताने से किसे लाभ मिल रहा है और यह लाभ आपके लिए लाभदायक है या नहीं? उनकी महानता से आपको कोई ऊर्जा मिलती है या नहीं? यदि आप कसौटियों पर तोलकर किसी को महान बना रहे हैं तो कुछ हद तक महानता आपके लिए भ्रम नहीं रहेगी।


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कई सालों तक हम बैक्टीरिया को अपना शत्रु समझते रहे लेकिन जैसे जैसे रिसर्च होती गई पता चलता गया कि हमारे शरीर मे मौजूद बैक्टीरिया हमारे मित्र होते हैं। ऐसे मित्र जो हमारा जीवन है और जिनके बिना हमारा जीवन मुश्किल है। यह हमारी आंतों में होते हैं और इनकी तादाद हमारी शरीर की कुल कोशिकाओं से 10 गुना ज्यादा होती है अर्थात इनकी तादाद है 100 ट्रिलियन। कई शोधों से यह भी पता चला है कि यह बैक्टीरिया हम सभी इंसानों में अलग अलग होते हैं, विशिष्ट बिल्कुल वैसे जैसे कि हमारे फिंगर प्रिंट्स।

एंटीबायोटिक के आविष्कार के बाद हमने बैक्टेरिया के खिलाफ युद्ध छेड़ा, दवा निर्माताओं ने अपनी दवाइयों को बेचने के लिए डर का हव्वा खड़ा किया और हर छोटी-मोटी समस्याओं में हमें एंटीबायोटिक के डोज़ धड़ल्ले से खिलाना शुरू कर दिये। हमने इन एंटीबायोटिक से अपने इन मित्रों की बेतहाशा हत्याएं की ठीक उसी क्रूरता से जैसे कि हिटलर ने इंसानों को गैस चैम्बर में मारकर मास-जीनोसाइड किया था। एंटीबायोटिक दवाओं से बुरे बैक्टेरिया मरते हैं माना *ज्ञात रहे कि अब बहुत से बैक्टेरिया रेसिस्टेंट भी हो चुके हैं) लेकिन वे इन बेचारे जीवनदायी हमारे रक्षक बैक्टेरिया को भी खत्म कर देते हैं। इससे हमारे शरीर में इनकी कमी हो जाती है बस इसी स्थिति को ‘डिसबायोसिस’ कहते हैं। अर्थात अच्छे बैक्टेरिया की शरीर में कमी और हानिकारक बैक्टेरिया की वृद्धि।

एंटीबायोटिक के अलावा एंटासिड भी डिसबायोसिस के लिए जिम्मेदार हैं। क्योंकि वे आमाशय में एसिड को कम करते हैं जो कि बुरे बैक्टेरिया को नष्ट करता था। एसिड कम होने से बुरे बैक्टीरिया की तादाद बढ़ जाती हैं और वे मिलकर अच्छे बेक्टेरिया को नष्ट करने लगते हैं।

स्टेरॉइड, एन्टीअलर्जीक दवा भी शरीर की इम्युनिटी को कम करते हैं जिससे बुरे बैक्टेरिया बढ़ते हैं और अच्छे बैक्टेरिया को नष्ट करने लगते हैं।

जंक फूड, बहुत तेज़ मिर्च मसाला, शुगर, कार्बोनेटेड ड्रिंक्स और नॉनवेज ज्यादा मात्रा में लेना तथा कच्चे फल और सब्ज़िया, रेशेदार भोजन को कम खाना भी डिसबायोसिस उत्पन्न करता है।

हमारे मित्र बैक्टीरिया हमारे लिए क्या क्या करते हैं-

●बुरे बैक्टीरिया को ये नष्ट करके हमें इंफेक्शन से बचाते हैं।
●शरीर में फंगस को नष्ट करते हैं।
●शरीर से टॉक्सिन्स को नही बनने देते हैं।
●भोजन में मौजूद टॉक्सिन्स को नष्ट करते हैं।
●कब्ज़ से बचाते हैं।
●दस्त और पेचिश से रक्षा करते हैं।
●विटामिन बी और के का निर्माण करते हैं।
●मिनरल्स का अब्सॉर्प्शन बढ़ाते हैं।
●प्रोटीन और वसा के पाचन में सहायता करते हैं।
●इम्युनिटी बढ़ाते हैं।
●हॉर्मोन निर्माण में सहायता करते हैं जैसे एस्ट्रोजन।
●कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करके हार्ट की समस्या से बचाते हैं।
●कैंसर से बचाते हैं।

मित्र बैक्टेरिया को नष्ट करना ऐसा ही जैसे कि हम धीमे ज़हर से आत्महत्या कर रहें हो। इनकी रक्षा कीजिए अपने लिए अपने स्वास्थ्य के लिए।

एंटीबायोटिक का प्रयोग बात बात पर न करें, एंटासिड फैशन के तौर पर न लें, आर्टिफिशियल स्टेरॉइड से बचें, जंक फूड की जगह नेचुरल, शाकाहारी और कच्चा भोजन लें। दवाओं में प्रोबायोटिक लें ताकि इन मित्र बैक्टीरिया के मित्रों की संख्या शरीर में बढ़े।


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बच्चों में मां बाप के कोई ज्यादा लाडला होता है तो कोई कम। ऐसा क्यों होता है। आखिर क्या वजह है माँ बाप के लाडले बनने के पीछे?

आदिमविकास के दौरान पुरुषों का काम भोजन का इंतजाम करना शिकार आदि के द्वारा जो बाद में कृषि करके होने लगा इसके अलावा परिवार की शिकारी जानवरों और शत्रुओं से सुरक्षा करना था। महिलाओं को घर का ख्याल रखना, बच्चों की परवरिश करना और परिवार के लिए भोजन पकाना था। पुरुषों के लिए सम्मान प्रिय था और महिलाओं को सुरक्षा। यह हमारी वैचारिकता हमारे आदिमविकास के कारण ही निर्धारित हुई है।

अब बात आती है बच्चों की, तो पिता अपने साथ भोजन की तलाश या शिकार के लिए अपने बेटों को ले जाते थे और बेटियां घर पर अपनी माँ के कामों में हाथ बटाती थीं। पिता को अपने वह बेटे ज्यादा प्रिय थे जो अच्छा शिकार करते थे यानी लक्ष्य को हासिल करते थे। अच्छे शिकारी या योद्धा को उस समय कबीलों में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। अर्थात जो भी बेटा लक्ष्य हासिल करता था, सम्मान दिलवाता था वह पिता को प्रिय था। यही आज भी है, पिता का हाथ बटाने वाले, लक्ष्य हासिल करने वाले और सम्मान दिलवाने वाले बेटे उन्हें लाडले होते हैं। इसके विपरीत गुण वाले बेटे उसके लाडले नहीं होंगे। परीक्षा को ऊंचे अंकों के साथ पास करने वाला, ऊंचे पद पर चयनित होने वाला या ऊंची तनख्वाह पाने वाला बेटा पिता को अन्य बेटों से ज्यादा लाडला होगा। पुरुषों को बेटियां वह लाडली होंगी जो उसका एक माँ की तरह ख्याल रखें और पुत्रों की ही तरह उसके सम्मान को बढ़ाए। यदि बेटियों के द्वारा ऐसा कोई काम कर दिया जाए जिससे पिता की इज्ज़त या सम्मान को ठेस पहुंची हो तो अपनी लाडली बेटी से नफरत करने लगेगा यदि सम्मान को बहुत ज्यादा आघात पहुँचा हो तो हो सकता है वह पिता अपनी बेटी को मार भी डाले क्योंकि पुरुषों के लिए सम्मान ही सबकुछ है।

मां के लिए वे बेटे ज्यादा लाडले होंगे जो उसके सामने भावनाओं का प्रदर्शन करें, उसकी समस्याओं को गौर से सुने और सबसे बढ़कर उसे सुरक्षा (आर्थिक और सामाजिक) प्रदान करे। इसके विपरीत गुण वाला बेटा उसका लाडला नही बन पाएगा। चूंकि यह गुण (सुरक्षा) वाला लड़कियों में आधुनिक काल से कुछ समय पहले तक लगभग नहीं था इसलिए माँ बेटों से ज्यादा प्रेम करती हैं बेटियों की अपेक्षा। लेकिन अब चूंकि पाषाण युग और कृषियुग के बाद औद्योगिक क्रांति तथा संचार क्रांति होने से बेटियां भी लड़को के बराबर तनख्वाह पा रही हैं और कानून व्यवस्था के द्वारा सुरक्षा का भी भरोसा दिलवा रही हैं इसलिए अब वे भी माँ की लाडली बन रही हैं…और इसमें वृद्धि ही होगी।


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हम सभी बचपन में रूठते थे, नख़रे करते थे, बहुत एहसान जताते हुए अपनी ज़िद पूरी करवाते थे। हम सभी के बचपन में यह आम था चाहे आपका बचपन मेरी ही तरह गरीब क्यों न था। हमारे बचपन की ज़िद और नख़रे हमारे अमीर गरीब होने पर निर्भर नहीं करते वे निर्भर करते हैं हमारे मां बाप पर। वे अगर हमारे बचपन में नहीं होते तो हम ज़िद और नख़रे नहीं कर पाते दोस्तो। हमारे बच्चे जो हमारे सामने रोज़ाना इतने तमाशे करते हैं, क्या वे हमारे इस दुनिया में ना होने पर भी कर पाते? चाहे उन्हें पालने वाले हमारे रिश्तेदार उन्हें कितना ही प्रेम क्यों ना करते, वे कभी उनसे उतनी हक़ से ज़िद नहीं करते जितना हमारे सामने करते हैं। उन्हें अपने आंसुओं पर किसी बात को मनवाने की इतनी उम्मीद किसी से नहीं होती जितनी कि हमसे होती है। तरस खाकर परवरिश करना और प्रेमपूर्वक परवरिश करने में ज़मीन आसमान का अन्तर होता है पाठकों।

पैगम्बर मुहम्मद सल. की एक सीख है जिसका भावार्थ है कि, “यतीम (अनाथ) बच्चों के सामने अपने बच्चों को लाड़-प्यार मत किया करो क्योंकि उनके दिलों में इससे रंज होता है।” हम जब अपने बच्चों को किसी यतीम के सामने दुलारते हैं तो उस वक़्त उसके दिल में अपने माँ-बाप की कमी का जो गम धधकता है उसे यक़ीन मानिए दुनिया का कोई पानी नहीं बुझा सकता। यतीम बच्चों की अपनी एक अलग दुनिया होती है, वे हम सब से अलग होते हैं। उनका बचपन हमारे या हमारे बच्चों की तरह नहीं होता। उनके बचपन में दुखों का सैलाब होता है, आँसू होते हैं, भूख होती है, डर होता है, एहसानों का बोझ होता है, डांट होती हैं, ताने होते हैं, और सबसे बड़ी बात कि उनके बचपन में कोई ज़िद और नखरे नहीं होती। माना कि यतीम बचपन ने दुनिया को कई महान इंसान दिए हैं लेकिन इनकी पीड़ाओं का कोई बदला नहीं है जो बचपन में इन्होंने झेली हैं। मां-बाप से बढ़कर बच्चों के लिए कुछ भी नहीं है इस संसार में। अगर खुदा या ईश्वर ने आपको मां-बाप दिए हैं तो उसका शुक्र अदा करें और किसी यतीम की दुनिया अगर संवार सकते हों तो ज़रूर सँवारे। यतीमों से प्रेम करें, उनका दिल ना दुखाएं अगर उनकी कोई मांग हो या कोई मासूम सी ज़िद हो तो उसे ज़रूर पूरा कर दें… अगर आपके पास उन्हें देने को कुछ ना हो तो उन्हें बस ‘फूल सा प्यारा बच्चा ही कह दें’ वे खुश हो जाएंगे और ज़िन्दगी भर आपको याद रखेंगे। हाँ, तब भी याद रखेंगे जब वे बड़े होकर एक महान व्यक्ति बन जाएँगे क्योंकि मुश्किल बचपन महानता की कोख है।


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वह बसंत की एक दोपहर थी। मेरे अपॉइंटमेंट स्लॉट में आखरी जो रोगी थे वे दूर गांव के एक बुजुर्ग कैंसर रोगी थे। परामर्श लेने के बाद केबिन से जाते समय उनके बेटे ने उनसे कहा कि, “बाबा अभी ट्रैन में वक़्त है इसलिए चलो मैं आपको भोपाल घुमा देता हूँ, काफ़ी खूबसूरत और विकसित होगया है यह शहर, आपको अच्छा लगेगा।” उस पर उस रोगी ने जवाब दिया अपने बेटे को कि, “बेटा मेरे अंदर की दुनिया जब तक ठीक नहीं होगी ना तब तक बाहर का कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा मुझे।” वह झकझोर देने वाले शब्द मेरे कानों में हमेशा गूँजते हैं। मैं जब भी दुनिया की सुंदरता को निहारता हूँ तो एक नज़रिया यह भी रखता हूँ कि मेरे रोगियों को भी क्या यह दुनिया इतनी ही सुंदर लगती होगी जितनी कि अभी मुझे लग रही है। बिना किसी व्यसन में पड़े मेरा वह मासूम रोगी क्रूर कैंसर के जाल में उलझ गया था, क्यों? उसे नहीं पता लेकिन मैं तो जानता था कि इसकी वजह हमारा खोखला विकास है जो प्रकृति को तहस नहस कर रहा है। हजारों तरह की तितलियों, अनगिनत वन्यजीवों और मधुमक्खी के विलुप्त होने पर आप यह बिल्कुल मत सोचिए कि यह विनाश आप तक नहीं आएगा। यह विनाश की बाढ़ या अंधड़ हम इंसानों को भी लील लेगा। हमारी तरक्की कृत्रिम सुंदरता को बढ़ा कर असली और नैसर्गिक सौंदर्य को तहस नहस कर रही है। बेतहाशा जंगलों की कटाई और उनके स्थान पर कांक्रीट के जंगलों के निर्माण तथा दिखावे की विलासिता ने हमें यह किस जानलेवा मुँहाने पर लाकर छोड़ दिया है! बाहरी दुनिया अच्छी किये बगैर हमारी अंदरूनी दुनिया ठीक हो ही नहीं सकती, क्योंकि जो ब्रह्मांड में है वही पिंड (शरीर) में है। आज हम बात करेंगे धरती के बढ़ते तापमान की।

2015 में ग्लोबल वार्मिंग पर यूनाइटेड नेशंस की हुई मीट में यह तय हुआ था कि सभी देश मिलकर धरती के बढ़ते तापमान को रोकने के लिए प्रयास करेंगे। औद्योगिक क्रांति के पहले की धरती से वर्तमान की धरती का तापमान औसतन 2℃ ज्यादा हो गया है। यह तापमान कितना जानलेवा साबित हो रहा है इसके लिए लंदन स्कूल ऑफ हाइजिन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के रिसर्चर्स की टीम ने हाल ही में एक रिसर्च प्रकाशित की। टीम ने इस रिसर्च के लिए 23 देशों की 451 जगहों को चिन्हित किया जिनका कि सामाजिक और पर्यावरणीय ताना-बाना भिन्न था, उनके तापमान में हुए परिवर्तन भी भिन्न थे। फिर उन स्थानों का इतिहास देखा कि यहां भूतकाल में जब तापमान में वृद्धि नहीं हुई थी तब गर्मी की वजह से कितनी मृत्युएँ हुई थी। परिणाम बहुत ज्यादा चोकाने वाले थे कि जहां पर तापमान 3 से 4℃ तक बढ़ा था वहां गर्मी से होने वाली मौतों में .75 से 8% तक वृद्धि हुई थी। जो ठंडे देश या हिस्से थे वहां पर गर्मी के कारण मृत्युओं में ज्यादा इज़ाफ़ा नहीं देखा गया।

उपरोक्त रिसर्च हमें चेता रही है कि अब सभी देशों को सचेत हो जाना चाहिए इस महाविनाश को रोकने के लिए। मृत्युएँ अगर 8% से अधिक की दर से बढ़ रही हैं तो यह वाकई बहुत खतरनाक है, हम जैसे गर्म जलवायु और विकासशील देश के लिए।

ग्लोबल वार्मिंग से किड़नी की समस्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। तापमान अधिक होने से पसीना ज्यादा आता है और किड़नी की क्रियाविधि प्रभावित होती है। मूत्र का निर्माण कम होने से पथरी अब आम समस्या होती जा रही है। हृदय रोग, श्वास के रोग, कैंसर, ब्लीडिंग की समस्या भी कई जाने ले रही हैं जिसके लिए भी बढ़ा हुआ तापमान बहुत हद तक जिम्मेदार है। एक रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग से मलेरिया और डेंगू जैसे जानलेवा रोग भी बढ़ें हैं। ग्लोबल वार्मिंग के चलते संक्रामक रोग में भी बहुत वृद्धि होगी क्योंकि पानी और खाद्य और ज्यादा प्रदूषित जो होते जाएँगे।

क्या आयुर्वेद इसके लिए कोई हल प्रस्तुत कर सकता है? इस सवाल का जवाब है कि हाँ, कुछ हद तक वह मानवता को बचा सकता है लेकिन बढ़ते तापमान को कम करना ही एक मात्र सच्चा और असरदार उपाय है। आयुर्वेद के अनुसार तापमान के बढ़ने से पित्त की वृद्धि होगी। ऐसे में हम पित्त शामक दवाओं से कुछ हद तक हमारे शरीर के कोमल अंगों को बचा सकते हैं। किड़नी, लिवर, हृदय और फेफड़ों के ठीक से कार्य करने के लिए पुनर्नवा, भुई आंवला, तुलसी, पुदीना, लौकी, एलोवेरा का रोज़ाना सेवन करें। पानी ज्यादा मात्रा में पिये। पानी को शुद्ध करने के लिए नींबू के रस की कुछ बूंदे डालकर थोड़ी देर बाद पिये जिससे पानी की कई अशुद्धियां नीचे बैठ जाएगी। निर्मली नामक औषधि के बीजों से भी पानी को शुद्ध किया जा सकता है और इसके द्वारा शुद्धि सदियों से की जाती रही हैं। प्रोसेस्ड फूड्स से बचें, कीटनाशकों से युक्त सब्जियों और अन्न की जगह ऑर्गेनिक का प्रयोग करें, शक्कर का सेवन कम करें क्योंकि नेकेड कैलोरी युक्त यह शक्कर पच कर पायरुविक एसिड बनाएगी और यह एसिड शरीर में एसिड का निर्माण करके अंगों को क्षत विक्षत करेगा… और सबसे बढ़कर ना पेड़ काटे और ना काटने दें। अंत में याद रखें कि हमें रहना इसी दुनिया में हैं, हम बेशक मंगल ग्रह पर पहुंच जाएं लेकिन जो रहने के लिए एक मात्र बेहतरीन जगह हमें कुदरत ने दी है उसे बर्बाद करके वहां पहुँचना तरक्की तो हो सकती है लेकिन समझदारी नहीं।


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रोज़ाना की दौड़ती भागती ज़िन्दगी। ऑफिस से घर, घर से ऑफिस, दुकान से घर, घर से दुकान….. ओफ्फोह क्या यही जीवन है? अगर यही है तो फिर बोर होना लाज़मी है, लाज़मी है आपका दुःखी रहना, लाज़मी है आपका डिप्रेस हो जाना। थोड़ा सा रोज़ाना या हफ़्ते में अपने लिए वक़्त निकालिये। अपने घर के पास अगर नदी हो तो वहाँ जाइये और और सुनिये उसकी कलकल बहती धारा का संगीत, अपने कानों में घोलिये उस संगीत का रस और अपनी आंखों में समाने दीजिये उस खूबसूरत मंज़र का रंग। अगर आपके घर के पास समंदर हो तो उसके किनारे बैठिये और सुनिये उसकी लहरों की गड़गड़ाहट और उससे मिलाइये अपने दिल की धड़कनों को, फिर देखिये एक नई ऊर्जा का संचार होगा आपके दिल से मस्तिष्क तक। गहरी सांस लीजिए। उसके किनारे बैठकर उसकी रेत पर अपनी उंगलियों से तस्वीर बनाइये, कोई भी, किसी की भी। तस्वीर बनाना नहीं आती हो फिर भी। देखिए यह आपको कितना आनंद देगी। फिर गहरी सांस लीजिए। दूर किसी पहाड़ी की चोटी पर जाइये और देखिए सूरज को ढलते हुए। उसकी लाल सुनहरी मंद किरणों को अपनी आत्मा से मिलने दीजिये, मुंह को बंद रखकर नाक से किसी गीत के सुर का गुंजन कीजिए। ये भंवरों का सा गुंजन आपको शांति दे रहा होगा। फिर गहरी सांसें लीजिए। उगते सूरज को निहारिये कभी। उसकी ऊर्जा को समाने दीजिये अपने तन मन में। इस सुंदर और अद्भुत तरंगों से भरे दृश्य को देखते हुए भी गहरी सांसें लीजिए। क्या आपको इस समय भी ऑफिस, काम, दुकान, मोबाइल फोन या ईमेल चेक करना याद आ रहा है? तो फिर गहरी सांसें लें, फिर से लें। तब तक गहरी साँसे लेते रहें जब तक कि आपके मन को, आपकी आत्मा को यह ज्ञान ना हो जाए कि आपका यहां रहना आपकी सर्वोच्च प्राथमिकता है। यही आनंद है। यही शांति है। यही सत्य है। यही सत्य का ज्ञान है। आपका काम काज, आपकी नौकरी, आपका ऑफिस, आपकी दुकान आदि केवल जीवन जीने के माध्यम हैं जीवन नहीं। जीवन तो यह है जो आप अभी कर रहे हैं… आनंद और शांति प्राप्ति के कार्य।


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आप एक कार चला रहे हैं। आप उसे तेज़ (100 से 120 की स्पीड में) चलाना चाहते हैं एक चिकने और बेहतरीन हाईवे पर। इस चाल तक आप आसानी से और सुरक्षित कार चला सकें इसके लिए आपके लिए सबसे ज़रूरी चीज़ क्या है? एक्सीलरेटर या ब्रेक? आप रुकिए और थोडासा ध्यान लगाकर सोचिए। क्या आपने सोचा? आपको क्या लगा? यहीं ना कि अगर ब्रेक कार में हो ही ना तो आप उसे 10 की स्पीड में भी चलाने में डरेंगे। ब्रेक सही हुए तो फिर आपको रफ़्तार से डर नहीं लगेगा। बेफिक्री वाली तेज़ रफ़्तार के लिए ब्रेक होना ज़रूरी है। यहाँ ब्रेक रफ्तार के लिए नकारात्मक या नेगेटिव भाव दे रहा है। लग रहा है कि यह तो रफ्तार का दुश्मन है, रफ्तार को रोकने वाला है, रफ्तार का विपरीत है— यह ब्रेक शब्द। लेकिन गौर किया जाए तो इसके बिना रफ्तार जानलेवा साबित हो सकती है।

मेरे पास गांव के एक बुजुर्ग रोगी आए। उन्हें घुटनों की समस्या थी। साथ में उनकी पत्नी और एक बेटा था। मैंने प्रेस्किप्शन लिखते हुए ऐसे ही पूछ लिया कि, “आप करते क्या हैं?” उन्होंने जवाब दिया कि, “करना तो बहुत चाहता था साहब लेकिन दुनिया ने मेरे हुनर की कद्र नहीं की। मेरे अंदर इस कदर हुनर भरा हुआ है कि क्या बताऊँ।” मैंने पूछा, “जैसे?” उन्होंने कहा कि, “अगर मुझे कोई सिर्फ एक टन लोहा लाकर देदे तो मैं उसका ट्रैक्टर बना दूँ। मैंने कई बार इन दोनों (पत्नी और बेटा) से कहा कि मुझे देदो लोहा, लेकिन ये कमबख्त लाकर ही नहीं दे रहे।” मैं हँसते हँसते कुर्सी पर ही ढेर हो गया। वे यह देखकर नाराज़ हुए होंगे शायद लेकिन मुझे जानने वाले जानते हैं कि हँसी रोकने की मेरी क्षमता बहुत ही नगण्य है। चलो हम फिर मुद्दे पर आते हैं। तो प्रिय पाठकों में यह कहना चाहता था कि इस केस में रोगी बेइंतहा सकारात्मक है लेकिन यह सकारात्मकता किसी काम की नहीं है। क्योंकि वह व्यक्ति अपनी क्षमता और वास्तविकता से अंजान है। उसकी सकारात्मकता उसे किसी लक्ष्य तक लेकर नहीं जा पाएगी उल्टा वह अपना नुक़सान कर बैठेगा और हँसी का पात्र बनेगा।

यदि आप केवल सकारात्मक सोचते हैं तो भी आप उतने ही गलत है जितने की केवल और केवल नकारात्मक सोचने वाला। आप सकारात्मक सोच के साथ परिणाम और क्षमताओं को ध्यान में रखकर कोई राय बनाते हैं या निर्णय लेते हैं तो आप एक समझदार इंसान हैं। यही सफलता के लिए आवश्यक है और यही सफल लोगों का गुण होता है। सकारात्मक सोच रखें लेकिन समझदारी के साथ। सकारात्मक सोच एक्सीलरेटर है तो समझदारी ब्रेक।


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हम डॉ के लिए तो सबसे बड़ा गुरू मरीज़ ही होता है, वही हमे बताता है कि कैसे बात करना है, कब हँसना है, कब चुप रहना है, कब केवल सुनना है, कब सांत्वना देना है…आदि

जब हम डॉक्टरी पढ़ते हैं तो सोचते हैं कि हम अपने रोगी को यह समझायेंगे वो समझायेंगे, ऐसे समझाएंगे वैसे समझाएंगे, उसे एक गुरु की तरह सेहत का पाठ पढ़ाएंगे… लेकिन जब हम प्रैक्टिस में उतरते हैं तो पाते हैं कि जिसे हम पढ़ाने आये थे वह तो असल में हमारा गुरू है…वह हमें रोज़ाना नये नये सबक सिखा कर जाता है… शायद इसी लिए डॉक्टर के काम को ‘प्रैक्टिस’ कहा जाता है, जो कि बिल्कुल सही है।

तो टीचर्स डे पर मेरे सभी मरीज़ों को शुभकामनाएं / बधाई / मुबारक़ बात…चाहे आपको पता हो या न हो आप मेरे गुरु हैं और मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है, सीख रहा हूँ और सीखता रहूंगा।


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कड़कड़ाती बिजली की आवाज़ हो, शेर की दहाड़ हो, सामने से कोई तेज़ आती गाड़ी हो, नारे लगाती उत्तेजित भीड़ हो, किसी ज़हरीले जानवर के दर्शन हो या फिर कोई दहशत भरी खबर हो हमें डरा देती हैं। इनसे हमारी धड़कनें बढ़ने लगती हैं, पसीने छूटने लगते हैं, सांसे तेज़ चलने लगती हैं, हमारे हाथ पैर फूल जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? हम डरते क्यों हैं? क्या डरना एक ज़रूरी चीज़ है या फिर गैरज़रूरी?

मानव विकास यात्रा के साथ साथ में ही हमारे मस्तिष्क का विकास हुआ। हमारे शरीर के हर एक अवयव का एक ही कार्य है हमारे जीवन को बचाना। यदि आप गौर से थोड़ा सा सोचेंगे तो पाएंगे कि हमारा हर अंग और हर कोशिका हमें जीवित रखने के लिए दिन रात मेहनत कर रहे हैं। मस्तिष्क का एक प्रमुख कार्य है हमारे जीवन को बचाने के लिए विभिन्न खतरों से हमें आगाह करना। वह अपने अंदर तरह तरह की यादें, सूचनाएं और डेटा इकट्ठा करता रहता है। यह हमारे स्वयं के भी होते हैं और आनुवंशिक भी जो हम हमारे पूर्वजों से अर्जित करते हैं। जैसे आदिमकाल में लोग बिजली गिरने, सांप के काटने, हिंसक पशुओं के शिकार हो जाने से मरते थे तो हमारा मस्तिष्क जब यह सामने देखता है या हमारी कोई इंद्रिय इन खतरों के संदेश लेकर आती है तो हमारा दिमाग इस मुसीबत से हमें बचाने के लिए अलर्ट या सचेत करता है। यह सचेत करने की प्रक्रिया ही होती है जिसे हम ‘डर’ कहते हैं।

आपने देखा कि एक सांप ने एक व्यक्ति को डसा और वह मर गया। आपके दिमाग ने यह डेटा अपनी स्मृति में सुरक्षित कर लिया। अब आप जैसे ही सांप को देखेंगे आपको डर लगने लगेगा। डर में या तो आप उसे मारने का प्रयत्न करेंगे या फिर उससे दूर भागने का। यही ‘फ्राइट एंड फाइट’ का सिद्धांत कहलाता है। इसी प्रकार का डर आपको कोई बात सुनकर, कोई दृश्य देखकर या कोई खबर पढ़कर भी हो सकता है।

मेरा एक रोगीे जो कि एक ट्रक ड्राइवर था ने कई बार सोशल मीडिया पर भीड़ द्वारा ड्राइवर को पीटने वाले वीडियो देख लिए। अब वह भीड़ में जाने से डरने लगा। डर इतना बड़ा कि अब वह ट्रक चलाना ही छोड़ चुका है। लेकिन भीड़ से डरना उसे अब भी सता रहा है। वह डर या फोबिया का मरीज़ बन गया है। सुनामी के वीडियो देखकर एक युवा समुद्र से डरने लगा था, भूकंप के वीडियो देखकर एक महिला ऊंची इमारत से डरने लगी थी। यह सभी इसलिए डर रहे हैं क्योंकि दिमाग अपना काम कर रहा है— आपके जीवन को हानि पहुंचाने वाले खतरों से आपको आगाह करने का। वह अपनी जगह सही है। हम इतने ज्यादा डरपोक इसलिए होते जा रहे हैं क्योंकि हम उसे डर को बढ़ाने वाली बातें दिनरात दिखा रहे हैं टीवी, मोबाइल, इंटरनेट और न्यूज़ पेपरों के माध्यम से। वह सूचनाएं इकट्ठा कर करके आपको बताता है और आप वास्तविक डर नहीं होने पर भी डर महसूस करके डर के मरीज़ बन जाते हैं। हम डर कर फ्राइट या फाइट वाला कार्य भी नहीं कर पाते क्योंकि स्क्रीन या पेपर पर देखे गए डर के कारणों से आप कैसे लड़ेंगे और भागेंगे। यह नकारात्मक ऊर्जा हमारे अंदर ही रह जाती है और हमारे शरीर तथा मन को उजाड़ने लगती है। क्राइम प्रोग्राम हमारे मस्तिष्क में डर भरने वाले नंबर वन क्रिमिनल हैं। उनके शुरू होने से पहले सत्यघटना पर आधारित पढ़ लेने से हमारा मस्तिष्क उसे सच मान कर हमारे लिए सुरक्षा के डेटा इकट्ठा करता है और फिर शुरू होता है डर का सिलसिला। नौकर से डर, टैक्सी वाले से डर, पत्नी से डर, पति से डर… सभी पर शक़ और सभी से डर। हर आहट डराने लगती है और हर दस्तक डराने लगती है।

चूंकि हम मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए हम जानवरों की तरह केवल मृत्यु से ही नहीं डरते अपितु सामाजिक प्रतिष्ठा चली जाने या किसी प्रियजनों की मृत्यु या किसी भावी नुकसान से भी ख़ौफ़ खाते हैं। इनसे संबंधित खबरें भी हमें डराती है जैसे किसी अन्य के बच्चे की किसी बीमारी से मृत्यु होने पर अपने बच्चे के साथ भी कोई अनहोनी हो जाने का डर।

प्रिय पाठकों बेवजह के डर से बचने के लिए डरावने और नकारात्मक वीडियो, खबर, पोस्ट्स, प्रोग्राम और व्यक्तियों से दूर रहें। और अगर देखें भी तो अपने दिमाग को बता दें कि ये केवल खबरें हैं इनसे डरने की ज़रूरत नहीं है।


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साँसों से निकलते संगीत, साँसों का गर्म स्पर्श शायद दुनिया का सबसे खूबसूरत एहसास है। यह जीवन का शगुन है और इसकी अनुपस्थिति मृत्यु है। एक माँ रात में बहुत बुरा ख़्वाब देखकर जागती है और अपने बच्चे की साँसों को महससू करने के लिए उसकी उंगलियों को उसकी नाक के पास ले जाती है और जब उन उंगलियों पर उस बच्चे की सांस स्पर्श करती हैं तब जो अहसास उस मां को होता है वह शब्दों में बयान किया ही नहीं जा सकता। यही मैं कहना चाहता था कि साँसों से सुंदर कुछ भी नहीं। सांसें कीमती भी होती हैं और यह कई बार व्यर्थ भी हो जाती हैं। यह बात खुद के लिए और औरों के लिए भी समान रूप से लागू होती है। कई बार लोगों को अपनी ही सांसें बोझ लगने लगती हैं। वे जल्दी से उस बोझ को हटाना चाहते हैं, वे मर जाना चाहते हैं। कई बार सांसें बेहद ज़रूरी हो जाती हैं, जीना बहुत ज़रूरी हो जाता है खुद के लिए या औरों के लिए।

वह एक व्यस्त दोपहर थी। मैं सभी रोगी देख चुका था कि एक रोगी बिना अपॉइंटमेंट के आया। रिसेप्शन से मुझे बताया गया कि वह रोगी मिले बगैर जाने को तैयार ही नहीं है। मैंने कहा कि भेजदो उसे कैबिन में। वह रोगी अंदर आया अपने एक खूबसूरत परिवार के साथ। उसकी पत्नी और दो मासूम बेटियों उसके साथ थी। उसने अपनी रिपोर्ट दिखाई। मैं गौर से देख रहा था और मेरी नज़र उन पैमानों पर गई जो उसके ब्लड कैंसर की पुष्टि कर रहे थे। मैं थोड़ा चौंक कि एक खूबसूरत और हृष्ट पुष्ट युवा को यह कौन सी मुसीबत ने घेर लिया। उसने मुझे कहा कि “सर क्या मेरी ज़िंदगी बचाई नहीं जा सकती, मेरा जीना बहुत ज़रूरी है सर, यह तीनों मेरे ही भरोसे हैं, कोई नहीं है इनका। हमने लव मैरिज की थी और ना मेरे घर वाले और ना मेरी पत्नी के घरवाले हमारे साथ हैं। इनके लिए मेरी ज़िंदगी बचा लीजिए…मेरा जीना बहुत ज़रूरी है सर।” वह कंपकपी पैदा करने वाले शब्द थे, झुरझुरी ला देने वाले, रुला देने वाले…। मैंने उसे संभाला और फिर समझाया कि यह अब लाइलाज नहीं है, इलाज है इस रोग का मेरे प्यारे भाई।

फिर एक दिन मेरे पास एक और रोगी अपनी पत्नी और दो बेटियों के साथ आया। वह शराब के कारण अपना लिवर बर्बाद कर चुका था। बीवी और बच्चियों ने उसके कैबिन से जाने के बाद मुझे कहा कि यह मर जाए तो हमें सुकून मिले डॉक्टर। शराब ने हमारा घर परिवार सब बर्बाद कर दिया है। हमारा जीना मुश्किल कर दिया है इस शराबी आदमी ने।

दो परिवार और दोनों के घर के मुखिया की साँसों की कीमत अलग अलग। एक की सांसें बेहद अमूल्य थी और एक की सांसें गैरज़रूरी या बोझ। मृत्यु के महत्व का अलग ही मनोविज्ञान है। आप किसकी मृत्यु पर दुःखी होंगे और किसकी मृत्यु पर आपको कोई दुःख नहीं होगा यह आपका मन ही तय करता है। एक पिता को उसका बेटा अपशब्द कहकर चला जाए और वह जाकर एक्सीडेंट में मर जाए तो पिता को उसकी मृत्यु का दुःख कम होगा या नहीं होगा। यदि उसका बेटा उन अपशब्दों को कहने के पहले मर जाता तो पिता को पहाड़ों के बराबर दुःख होता।

हमसे किसी के सपने जुड़ें हो, हम पर कोई निर्भर हो तो उन्हें हमारी मृत्यु पर बहुत दुःख होगा। और किसी के सपने हमारे कारण पूरे नहीं हो रहे हैं तो वह हमारी मृत्यु का इंतजार करेगा कि हम कब मरे। किसी के सपनों को पूरा करने वाली सीढ़ी बनने पर आप उसके प्रिय बन जाते हैं और वह आपको मरने नहीं देगा, आपको बचाने के लिए हर संभव प्रयास करेगा। अपने जीवन को अमूल्य बनाइये, इससे लोगों का जीवन आसान बनाइये। बदले में आपको प्रेम मिलेगा, आपका जीवन अमूल्य बन जाएगा। प्रिय पाठकों आपकी सांसें कैसी हैं- कीमती या बेकार?


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