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मेरे पास कुछ साल पहले एक बाबा अपना इलाज करवाने आए। उन्हें उनका एक भक्त लाया था। मैं उनके लिए परामर्श लिख रहा था और बीच बीच में कुछ और बात भी हो रही थी हमारी। उनके भक्त ने बोला कि डॉक्टर साहब यदि आप चाहें तो गुरुजी से आपके भविष्य के बारे में कुछ पूछ सकते हैं, ये एक बहुत प्रसिद्ध भविष्यवक्ता हैं। मैंने सवाल किया कि, “गुरुजी आप कब तक ठीक हो जाएंगे?” उन्होंने कहा कि, “बच्चा ज्योतिष खुद थोड़े ही बता सकता है अपना भविष्यफल।” मैंने हँसते हुए फिर कहा कि, “अच्छा यह बता दीजिए कि मैं आपको कब तक ठीक कर दूंगा…।” वे मुस्कुराए और फिर चले गए।

जब हम भविष्य पूछते हैं और भविष्यवाणी करने वाला हमें बुरा भविष्य बताता है तब हम डर जाते हैं और उसे मिटाने के लिए कोई विधि विधान करवाते हैं या प्रार्थना करवाते हैं उन भविष्यवाणी करने वाले के कहने पर। अच्छा आप बताइए कि जब हम उसे मिटा रहे हैं या कोई और उसे मिटा रहा है तो वह भविष्य कैसे हो सकता है। जो तय वक़्त पर आया ही नहीं तो फिर भविष्य काहे का!

शेख सादी अपनी किताब गुलिस्तां में लिखते हैं कि एक नजूमी (भविष्यवक्ता) के घर जब वह कहीं बाहर चला जाता था तो कोई गैर मर्द आकर उसकी पत्नी के साथ सहवास करता था। एक दिन उसने उन्हें देख लिया और उसकी पत्नी और उस आदमी को मारने पीटने और गालियां देने लगा। तब एक बुजुर्ग ने उस नजूमी से कहा कि “तू आसमानों में तारों को देखकर भविष्य कैसे बता सकता है जबकि तुझे यही नहीं पता कि तेरे घर में क्या हो रहा है?”

भविष्यवक्ता जो भविष्य हमें बताता है वह हक़ीक़त में कभी आने वाला था ही नहीं। वह तो केवल आपके मनोविज्ञान और आपकी कमज़ोरियों से अंदाज़ा लगाता है। महिलाओं और पुरुषों के मनोविज्ञान का थोड़ा सा ज्ञान, एक अच्छा कॉस्ट्यूम, कुछ अच्छे चेले, एक अच्छा सेटअप, कुछ माउथ पब्लिसिटी करने वाले निपुण प्रचारकों का तालमेल आपको एक सफल भविष्यवक्ता बना सकता है। लेकिन आप खुले दिमाग और मनोविज्ञान के ज्ञाता लोगों के लिए कभी भविष्यवक्ता नहीं बन पाएंगे। क्योंकि वे जानते हैं कि यह सिर्फ एक छलावा है।

मनुष्य डरता है और सबसे ज्यादा भविष्य से। हम डरपोक हैं। हम अनिश्चितता से डरते हैं। हम वर्तमान को छोड़कर भविष्य को बेहतर बनाने की कवायद करते रहते हैं। भविष्य आएगा भी या नहीं हमें नहीं पता लेकिन वर्तमान तो सत्य है जिसे हम यूँही बर्बाद कर रहे हैं। हम भविष्य की चिंताओं में वर्तमान को खो रहे हैं और उस वर्तमान को भविष्य में भी खोएंगे क्योंकि उस समय वह भविष्य हमारा वर्तमान होगा और हमारी भविष्य की चिंताएं हम से हमारा भविष्य का वर्तमान भी छीन लेंगी।


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हाशिए पर रौशनी किताब के लेखक ध्रुव गुप्त जी को मैं फेसबुक के माध्यम से जानता हूँ और उनसे एक ही मुलाकात हुई है अब तक दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में, केवल 5 मिनट की। फेसबुक के वे मेरे सबसे पसंदीदा लेखक हैं। वे फेसबुक के ध्रुव तारा हैं। उनसे मेरी ही तरह कई नए लेखक सीखते हैं। वे बेहद सरल भाषा में निडरता और निष्पक्षता के साथ लिखते हैं। वे कवि भी हैं, शायर भी हैं और लेखक भी। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी एक भूतपूर्व पुलिस अधिकारी हैं। वे देश की एकता और अखंडता के लिए चिंतित रहते हैं जो हमें उनका दीवाना बनाता है। यह सभी उनकी विशेषता उनकी इस किताब में भी दिखती हैं।

किताब की शुरुआत परियों की कहानी और सुन लो, सुनाता हूँ तुमको कहानी से होती है जिसमें लेखक हमें एक बड़े की तरह परियों की कहानी और कहानियों का महत्व समझाते हैं। मुग़ल काल की दो महिलाओं का जिक्र करते उनके दो अध्याय अनारकली और औरंगजेब की बेटी जेबुन्निसा का पूरा पूरा वर्णन करते हैं।

उसके बाद वे हमें 3 भुला दिये गए स्वतंत्रता सेनानियों के ज़िक्र बेहद साफ़गोई से करते हैं- मौलवी बाक़िर, उदा देवी और पीर अली खान।

“समुद्र मंथन एक शोषण और छल की कथा” को आर्य और अनार्य की, सामन्तवाद, पूंजीवाद और गरीब तथा दलितों के साथ हुए अन्याय की कहानी बताते हैं। यह बेहद ही साफ़गोई और बिना लागलपेट के लिखा गया अध्याय है जिसमें लेखक की धार्मिक आस्था कहीं भी आड़े नहीं आती। जो बताता है कि वह पाठकों के लिए किस कदर समर्पित हैं। फिर जीसस और बौद्ध भिक्षुणियों पर दो अध्याय भी बहुत पड़ताल के बाद लिखें गए हैं।

संगीत, भाषा, फिल्मों पर लिखे गए अध्याय भी बेहद खूबसूरत बन पड़े हैं और हमारे ज्ञान में इज़ाफ़ा करते हैं। आखरी के अध्यायों में कृष्ण और राधा का पुनर्मिलन, दुर्गा बनाम महिषासुर, हम क्यों करते हैं सरस्वती पूजा, गणेश होने का अर्थ तथा ईश्वर और हम, हमें धर्म के द्वारा शिक्षित करने का प्रयास है। अंत में लेखक इतनी संवेदनहीन क्यों है हमारी पुलिस? जैसे अध्याय में अपने डिपार्टमेंट की संवेदनहीनता और उसके निराकरण के उपाय बताते हैं।


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तनाव मनुष्य का एक ज़रूरी गुण है। आप शायद चोक गए होंगे या समझ रहे होंगे कि यहाँ कोई मिसप्रिंट हुआ है। नहीं प्रिय पाठकों आपने सही पढ़ा है कि तनाव या चिंता हम मनुष्यों का एक आवश्यक गुण है। मैं तो यह भी कहता हूँ कि तनाव के बिना मानव जाति कब की विलुप्त हो चुकी होती। तनाव तब अवगुण या घातक हो जाता है जब आपको इससे निपटना न आए या आप इससे हार मानने लगें। तनाव जब हमारे मन, मस्तिष्क और आत्मा पर हावी होने लगता है तब यह समस्या उत्पन्न करता है, जानलेवा समस्याएं। अच्छा आप मुझे यह बताइये कि कौन सांप से ज्यादा डरेगा- वह व्यक्ति जिसे सिर्फ सांप के विष के जानलेवा गुण बताए गए हैं या वह व्यक्ति जिसे सांप से बचना, विषैले और विषहिन में फर्क करना और सांप के विष की प्राथमिक चिकित्सा सिखाई गई हो? निश्चित ही वह व्यक्ति ज्यादा डरेगा जिसे डराया तो बहुत गया लेकिन उससे निपटना नहीं सिखाया गया। तनाव के बारे में भी यही होता है कि हमें सब डराते हैं लेकिन लड़ना या उससे निपटना नहीं सिखाते। आग से कोई व्यक्ति जल सकता है और कोई उससे खाना पका लेगा, जिसे आग को नियंत्रित करना आता है। तो समस्या आग नहीं है समस्या है उसे नियंत्रण नहीं कर पाने की हमारी असमर्थता। चाकू से एक व्यक्ति अपना हाथ काट सकता है लेकिन सावधानी से वही व्यक्ति कई सारे सृजनात्मक कार्य भी कर सकता है। यहाँ भी समस्या चाकू नहीं है समस्या तो उसके उपयोग में की गई लापरवाही है।

मानव विकास यात्रा में तनाव ने ही इंसानों को विकास या परिवर्तन करना सिखाया है। तनाव और भय ने ही उसे गुफा में रहना सिखाया, भोजन की फिक्र ने उसे शिकार करना सिखाया और फिर कृषि और पशुपालन करने के लिए प्रेरित किया। बीमारियों से डर और उससे उत्पन्न तनाव ने उसे जड़ी बूटियों से लेकर सर्जरी तक करना सिखाया। यह तनाव ही है जो हमसे हमारा बेहतर करवाता है… तनाव के बिना तो हमारा जीवन एक ही ढर्रे पर चलता रहता और हम इंसान ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ के सिद्धांत के अनुसार नष्ट या विलुप्त हो गए होते। हमने कई बार लोगों को कहते सुना होगा कि ” मैं प्रेशर में ही अपना बेस्ट दे पाता हूँ।” याद कीजिए अपने परीक्षा के दिनों को जब हमारी याद करने की क्षमता आम दिनों से कई गुना अधिक बढ़ जाती थी, क्यों क्योंकि हमारा तनाव हम से हमारा सर्वश्रेष्ठ करवा रहा था। तो तनाव यहाँ पर हमारे लिए लाभदायक सिद्ध हो रहा है। आप रेकॉर्ड उठा कर देख लीजिए कि खिलाड़ियों ने अपना सर्वश्रेष्ठ ओलंपिक खेलों या किसी अन्य बड़ी प्रतियोगिता में ही दिया है। जितनी बड़ी प्रतियोगिता उतना बड़ा तनाव और उतना ही बेहतरीन प्रदर्शन। और याद रखिए कोयला पृथ्वी के गर्भ में दबाव के कारण ही हीरे में बदलता है।

तनाव हमारी उम्र, सेहत, आर्थिक स्थिति, शिक्षा, प्रशिक्षण, सामाजिक स्थिति, सामाजिक माहौल, परिवार के सदस्यों की संख्या आदि सेकड़ो कारकों पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए हम सांप को देखकर हमारे बच्चें तनाव से भर जाएंगे जबकि सपेरे के बच्चों को कोई तनाव नही होगा, कई भाइयों वाला व्यक्ति बिना भाई वाले व्यक्ति से ज्यादा असुरक्षित महसूस करेगा। एक रिसर्च में पाया गया कि वे नर्स कम तनाव और ज्यादा खुश थी जो कि तनावपूर्ण आई सी यु में ड्यूटी करती थी बनिस्बत उनके जो कम तनावपूर्ण अन्य वार्डों में ड्यूटी करती थी। वकीलों के समूहों पर भी ऐसा ही परिणाम प्राप्त हुआ अर्थात वह वकील ज्यादा खुश रहते हैं जो ज्यादा जटिल और तनावपूर्ण केसेस लड़ते हैं। यह भी देखा गया है कि अधिक तनावपूर्ण कार्य करने वाले प्रोफेशनल जीवन मे ज्यादा खुश और ज्यादा सेहतमंद होते हैं जैसे डॉक्टर, पायलट, सैनिक, नर्स, खोजी पत्रकार, वकील आदि।

हम महान भी उन्हीं लोगों को मानते हैं जो तनाव में अच्छा प्रदर्शन करते हैं, आखिर आप ही बताइए कि हम विराट कोहली को इतना क्यों चाहने लगे हैं? हाँ, इसीलिए न कि वह दबाव में अच्छा खेलते हैं और अपनी टीम को मैच जीता देते हैं।

संकट, विपत्ति या दबाव ही इंसानों को महान बनाता है। हाँ, वह गुलामी नामक विपत्ति ही थी जिसने मोहनदास करमचंद गांधी को महान महात्मा गांधी बनाया, वह रंगभेद नामक समस्या ही थी जिसने नेल्सन मंडेला को महान बनाया, वह नस्लभेदी नामक विपत्ति ही यही जिसने अब्राहम लिंकन को महान बनाया, वह जीवाणुओं से होने वाली मौतों का संकट ही था जिसने अलैक्जेंडर फ्लेमिंग को पेनिसिलिन की खोज करवाकर महान बनाया।

एक सिनेमा हॉल में अचानक से सांप आ जाए और फ़िल्म देखने वाले सभी आम लोग हो तो क्या होगा? हाँ, भगदड़ मच जाएगी और सांप के ज़हर से ज्यादा जानें भगदड़ ले लेगी। अब आप इमेजिन करिये कि उस सिनेमा हॉल में सभी सपेरे बैठें हो और सांप आए तो क्या होगा? क्या सारा परिदृश्य बदल नहीं जाएगा? अब वे सपेरे सांप को पकड़ने के लिए दौड़ पड़ेंगे। तो समस्या सांप नहीं थी, समस्या तो सांप को नियंत्रित न कर पाने अक्षमता की थी। यदि उन आम लोगों को भी सांप को नियंत्रित करने का प्रशिक्षण दिया जाता तो वे भगदड़ कभी न मचाते। वैसे ही समस्या तनाव नहीं है समस्या है तनाव को मैनेज न कर पाना। क्योंकि हमने उसे मैनेज करना सीखा ही नहीं। वैसे ही एक आम अप्रशिक्षित व्यक्ति गहरे समुद्र में डूब जाएगा और वहीं एक पेशेवर गौताखोर उस गहराई से मोती निकालकर ले आएगा। यहाँ भी समस्या समुद्र नहीं है व्यक्ति का अप्रशिक्षित होना है।

एक बीज को लेकर हम उसे यूँही ज़मीन पर डाल दें तो क्या होगा? क्या वह उगेगा? शायद नहीं। हम बीज को उगाने के लिए उसपर मिट्टी डालते हैं। एक अबोध बच्चे के सामने जब आप उस मासूम से दिखने वाले बीज को दबाएंगे मिट्टी में यो वह क्या कहेगा? वह सोचेगा कि यह तो ज़ुल्म हो रहा है बीज पर, बीज तो मर जाएगा, वह सड़ कर नष्ट हो जाएगा सदा के लिए। लेकिन सच्चाई यह है कि जिस दिन बीज को ज़मीन में दफनाया जाएगा वह उसका जन्मदिन होगा। उसी दिन वह उगना शुरू हो जाएगा। जमीन में दफन होना उसका जीवन है, एक पौधे या पेड़ के बनने की यात्रा का आरंभ है, उसके वंश के बढ़ने और उसके जैसे अनगिनत बीज बनने के सफर का यह आगाज़ है। इसलिए दबाव नहीं तो सफलता नहीं, तरक्की नहीं। दबाव के बिना कोयला हीरा नहीं बन सकता प्रिय पाठकों।


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भोपाल से उज्जैन का वह सुहाना सफर था। मौसम खूबसूरत और बेहद रुमानी था। ड्राइव मैं ही कर रहा था। बहुत ही अच्छी तरह बनाया और मैनेज किया हाईवे देवास तक था। अमूमन सभी गाड़ियों की रफ्तार 80 से 100 के बीच होती है लेकिन इसबार यह 60 से 80 के बीच हो गई थी। इसकी वजह थी बेचारी गायें। जिन्हें हम इंसानों ने बेसहारा और बेआसरा छोड़ दिया है। यह बेहद खूबसूरत और मासूम जानवर हमारी लापरवाही और बदइंतजामी के कारण जानलेवा हो गया है।

इस 184 km के रास्ते में हमेंं 3 जगह खौफनाक दृश्य मिले। एक में डिवाइडर पर घांस चरती एक गाय किसी चीज से डरकर अचानक रोड पर कूद पड़ी और हमारे आगे चलते एक ट्रक के सामने आगई। ट्रक अनियंत्रित और एक्सीडेंट होते होते बचा। दूसरे दृश्य में पुलिया के पास अचानक कहीं से दौड़ता बछड़ा हमारी गाड़ी के सामने आ गया और हमारी कार भी एक्सीडेंट होते होते बची और उस बछड़े को भी चोट लगते लगते बची। तीसरा सबसे घातक था वह उज्जैन के नज़दीक नरवर में एक कार की ट्रैक्टर ट्रॉली से टक्कर जिसमें कार सवार ऑन स्पॉट मर गए थे वजह थी गाय के कारण ट्रैक्टर को अचानक मोड़ना पड़ा और पीछे तेज़ रफ़्तार में आरही कार उसकी चपेट में आगई।

इन दृश्यों ने मुझे प्रेरित किया कि मैं शासन और प्रशासन को इस बात के लिए सुझाव दूँ कि वे एक नए पद का सृजन करें जिसका नाम हो ‘काऊ इंस्पेक्टर’ या ‘गाय निरीक्षक’। मैं इस बात पर पूरा पूरा विश्वास रखता हूँ कि जानवरों की दुर्दशा के लिए केवल और केवल हम इंसान ही जिम्मेदार हैं। समस्या गाय नहीं है समस्या हम इंसान हैं जो इनका सही से नियमन नहीं कर पा रहे हैं। काऊ इंस्पेक्टर इस समस्या का समाधान है जो गायों को हाईवे से हटाएगा। गायों के सींगों पर रिफ्लेक्टर लगाने का काम भी उसी का रहेगा। इससे गायों और वाहनों दोनों को सुरक्षा मिलेगी। यात्रा में लगने वाला समय कम होगा (ज्ञात रहे कि ऐसे में हाईवे की 500 किलोमीटर की यात्रा में डेढ़ से दो घंटे ज्यादा लग रहे हैं)। इसके लिए काऊ इंस्पेक्टर का खर्च टोल टेक्स में ही जोड़कर लिया जा सकता। यदि यह सफल रहता है तो इसे किसानों की फसल की हिफाज़त के लिए भी आजमाया जा सकता है।

निःसंदेह गौशाला गाय का रखरखाव रखने के लिए उत्तम जगह है लेकिन हम सभी उनकी स्थितियों से वाकिब हैं और यह बेहद खर्चीला भी है। गोपालक भी बेचारी दूध देना बंद कर चुकी गायों को बेसहारा छोड़ जाते हैं। वे भी दोषी नहीं है क्योंकि एक पशु को पालने का खर्च 15 से 20 हज़ार रुपये वार्षिक होता है जो गरीब किसानों के लिए असंभव है। काऊ इंस्पेक्टर कई जाने और पैसा बचा सकते हैं। हक़ीक़त में वे एक सरकारी गौरक्षक होंगे जो कई तरह से इंसानों और गायों की सेवा करेंगे और इससे दोनों की ही जानें भी बचेंगी।


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याद कीजिए जब मोबाइल नहीं थे, लैंड लाइन भी नहीं के बराबर थे। उस वक़्त एक व्यक्ति विभिन्न जाति या संप्रदायों में संदेश वाहक होता था जो खबरें लेकर सभी जगह जाता था। वह व्यक्ति मृत्यु के संदेश भी लाता था और विवाह के भी। अगर वह एक ही महीने के अंदर कई शोक संदेश ले आता था तो लोग उसे मनहूस मानने लगते थे और उसे देखते ही डरने लगते थे कि “हे ईश्वर हमें बुरी खबर अब मत देना।” रोबर्ट ग्रीन अपनी किताब ’48 लॉज़ ऑफ पॉवर’ में शायद इसीलिए एक नियम शक्ति का यह भी बताते हैं कि आप लोगों को बुरी या मनहूस खबरें न सुनाए। उस शोक की खबर लाने वाले व्यक्ति को देखकर आपकी धड़कने बढ़ने लगती थी और दिल बैठने लगता था, पसीना निकलने लगता था और पूरे शरीर में झुनझुनी होने लगती थी…।

अब संदेश वाहक की जगह मोबाइल फोन ने लेली है। अब सारे संदेश मोबाइल ही लेकर आता है। आपकी एकाउंट डिटेल, ट्रांज़िक्शन, नौकरी की सूचना, सेलेक्ट या रिजेक्ट होने की सूचना सब कुछ मोबाइल पर ही आती हैं। अगर आप रात में किसी के एक्सीडेंट या मृत्यु की खबर सुनते हैं और यह कई बार होने लगता है तो आपका मस्तिष्क उन्हें अपनी स्मृति में सुरक्षित कर लेता है और फिर मोबाइल की घंटी बजते ही आपके दिल की धड़कनें बढ़ने लगेंगी, पसीना आने लगेगा, सांस फूलने लगेंगी, नींद उड़ने लगेगी…। अगर आपको किसी ने धमकी दी हो या ब्लैकमेल किया हो या किसी पुलिस अफसर ने आप से किसी केस के बारे में कई बार फोन करके पुलिस स्टेशन बुलाया हो तो फिर यही लक्षण कई कई गुना बढ़ जाते हैं। आप एक मनोवैज्ञानिक समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं और इसका निराकरण न करने पर कई मानसिक और शारीरिक समस्याओं से ग्रसित भी हो जाते हैं जैसे- आईबीएस, अनिंद्रा, डिप्रेशन, फोबिया, अपच, बेचैनी, अनियंत्रित धड़कन, सिरदर्द, बदन दर्द, सीने में दर्द आदि।

क्या करें इससे निपटने के लिए-

◆ मोबाइल फोन को 24 घंटे चालू न रखें।
◆ सोते समय मोबाइल ज़रूर बंद करदें।
◆ मोबाइल को अधिकांश समय रिंग मॉड पर न रखें आराम, भोजन और परिवार के साथ समय बिताते समय इसे साइलेंट या वाइब्रेशन पर रख दें।
◆ बुरी खबर सुनने के बाद खुद से कहें कि यह खबर ही है इसको ज्यादा दिल पर न लें।
◆ बुरी खबर सुनने के बाद पुरानी रिंगटोन बदल दें वरना वह आपके अवचेतन में संग्रहित हो जाएगी और उसे विचलित करेगी।
◆ कोई भी डरावनी, नकारात्मक खबर, पोस्ट या वीडियो मोबाइल पर ना देखें।
◆ सोशल मीडिया का उपयोग केवल सकारात्मकता के लिए ही करें। नकारात्मक विचारों को न बढ़ाए न उनका समर्थन करें।
◆ सोशल मीडिया का उपयोग कम समय के लिए करें और रात को सोते समय तो बिल्कुल भी नहीं।

पुनःश्च- एक रोगी ने मुझसे पुछा था कि मोबाइल फोन के आने के बाद हम सब इतने मानसिक रूप से बीमार क्यों होने लगे हैं और शारीरिक रोग भी इतने क्यों बढ़ गए हैं। मैंने कहा कि हमारा शरीर पहले से उपस्थित किसी अंग को बदलने पर किसी और का अंग लगाने पर प्रतिक्रिया देता है जिसके लिए सर्जन कई दिनों तक स्टेरॉइड देते हैं ताकि प्रतिक्रिया ना हो। अब 21वी सदी में तो हमने एक नए अंग मोबाइल फोन को ही अपने शरीर का हिस्सा बना लिया है तो प्रतिक्रिया या रिएक्शन तो होगी ही।


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एक बड़े से मकान में 4 भाई रहते हैं और उनके बच्चे भी। उन चारों में आपस में बिल्कुल नहीं बनती और वे एक दूसरे से हद दर्जे की नफरत करते हैं। उनके बीच सुलह की कई लोगों ने कोशिश की। सुलह के लिए पड़ोसी, रिश्तेदार, गुरु, धर्मगुरु … सभी ने जी तोड़ कोशिश की लेकिन नतीजा शून्य रहा। फिर एक रात में उनके घर पर दंगाइयों ने हमला कर दिया। पत्थर और लाठियों से उनके घर पर वे टूट पड़े। यह केवल 5 मिनट हुआ और पुलिस पहुंच गई, जिससे दंगाई भाग गए। इन 5 मिनटों में वे सभी भाई एक हो गए, उनमें एकता हो गई और उनके मनमुटाव मिनटों में खत्म हो गए। ऐसा क्या हुआ था उन पांच मिनटों में जो बरसों में नहीं हुआ था कि उन्हें एक कर दिया, सब गीले शिकवे भुलवा दिए। जी हाँ, शत्रु की उपस्थिति या एंट्री होते ही वे एक हो गए। शत्रु ने वह काम कर दिया जो कोई नहीं कर पाया था, बड़े बड़े गुरु भी नहीं।

एकता बिना शत्रु के हो ही नहीं सकती या मैं यह भी कह सकता हूँ कि शत्रु के बिना एकता का कोई औचित्य नहीं है। एकता विभाजन का मूल है। हम एक होते ही किसी के विरुद्ध हैं। हमारा एकत्व हमें किसी से दूर करता है या किसी को विरोधी बनाता है।

धर्म के अनुयायी हो या जाति सम्प्रदाय में बंटे लोग या किसी देश के वासी हो या किसी नेता के समर्थक एक तभी होंगे जब उनके सामने शत्रु होगा। एक देश के लोग यदि बहुत बंटे हुए हैं तो वे एक तभी होंगे जब कोई और देश उनका शत्रु बनकर उभर आए या उनके अस्तित्व पर ही खतरा बन जाए।

एक चतुर नेता, एक काय्या धर्मगुरु, एक चालाक नव सम्प्रदाय निर्माता इस तथ्य को जानता है कि उसके समर्थक को एक रखने के लिए शत्रु ज़रूर बनाता है या दिखाता है। यदि शत्रु न हुआ तो वे कोई काल्पनिक शत्रु अपने समर्थकों या अनुयायियों को दिखाता है। “हम बनाव वे” एकता निर्मित करने का सबसे सफल फॉर्मूला है जो काल और स्थान से प्रभावित न हुआ है न होगा।

पुनःश्च- मुझसे एक बार एक पत्रकार ने पूछा था कि तो क्या धरती के सभी मनुष्य इस फॉर्मूले के अनुसार कभी एक नहीं हो पाएंगे, क्या ‘वसुंधरा कुटुम्बकम’ का ख्वाब केवल एक किताबी बात है? मैंने कहा कि नहीं, धरती के सभी इंसान एक हो सकते हैं यदि धरती से बाहर का कोई शत्रु प्रकट हो जाए और उनके अस्तित्व को नष्ट करने पर उतारू हो जाए…तो हम सीमाएं, रंग, नस्ल, धर्म सब भूलकर एक हो जाएंगे।


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हमारे जन्म लेते ही एक चीज हमें दी जाती है और एक ही बार दी जाती है, वह है हमारा शरीर। यह जीवन गुज़ारने का एकमात्र साधन है जो हमें सर्वशक्तिमान ईश्वर या खुदा द्वारा दिया जाता है। केवल और केवल इसके साथ ही हमें जीवन गुज़ारना होता है। इसके बिना जीवन का अस्तित्व नहीं है। यही हमारा सच्चा हमसफर है। मॉडर्न रूमानी अंदाज़ में कहूँ तो यही हमारा ‘ट्रू वैलंटाइन’ है। रुकिए मेरी बात पर शक़ करने से पहले आप एक बार खुद को शरीर के बिना इमैजिन कीजिए…अब शायद आपको मेरी बात का महत्व समझ आ रहा होगा।

एक सत्य स्वीकार कीजिए कि हमारे पास एक ही शरीर है और हमें उसी के साथ जीना है। यह सत्य स्वीकार करने के बाद आप मुझे यह बताइये कि आप इस एक मात्र अमूल्य निधि का कितना ख्याल रखते हैं? मैं अगर किसी युवा से कहूं कि अब शासन का नियम है कि आपको केवल और केवल एक ही बाइक मिलेगी और इसी से आपको अपने पूरे जीवन के सफर तय करना है। तो आप मुझे बताइये कि वह युवा उस बाइक की कितनी देख रेख करेगा? उसकी वह सर्विसिंग करवाएगा, समय पर ऑइल चेंज करवाएगा, टायर, ब्रेक, बॉडी सभी का ख्याल रखेगा। लेकिन अगर मैं कहूँ कि शरीर भी आपको एक ही मिला है और उसी में पूरी ज़िंदगी गुज़ारना है, इसका ख्याल रखो, इसकी सेहत को बनाए रखो, इसे पोषण दो, कसरत करो, परहेज़ करो, जोड़ों, दिल, किडनी, फेफड़े, लिवर, दिमाग का ख्याल रखो… आदि। तो अब वह युवा मेरी बात आसानी से नहीं मानेगा और अगर मानेगा भी तो केवल 15 से 20 दिन के लिए। फिर उसी ढर्रे पर। फिर उसी लापरवाही पर उसका जीवन लौट आएगा।

हम शरीर की अहमियत नहीं समझते। सेहत को कोई प्राथमिकता नहीं देते। शरीर को ऐसे घिस देते हैं जैसे यह हमारा है ही नहीं। नशा करके अपनेे मुंह, फेफड़े, लिवर और दिमाग को खराब कर लेते हैं। चटोरों और भुक्कड की तरह वास्तविक भूख से दुगना खा कर सो जाते हैं और फिर कई रोगों को दावत देकर इस शरीर को नष्ट कर लेते हैं। हम शरीर को होश संभालते ही खराब करना शुरू कर देते हैं और जब यह खराब हो जाता है तब हमें असली होश आता है कि अरे यह हम क्या कर बैठे! नाश, सत्यानाश और क्या।

प्रिय पाठकों आपका शरीर जब तक आपके साथ है तभी तक ज़िन्दगी का आनंद है, मज़ा है और ऑफकोर्स जीवन है। आपके जीवन का कोई भी काम शरीर के बिना नहीं हो सकता। कोई भी लक्ष्य इसके बिना नहीं पाया जा सकता। किसी की मदद इसके बिना नहीं की जा सकती। यह जब तक आपके साथ है आप किसी का भी सहारा बन सकते हैं लेकिन यह अगर आपके साथ नहीं है तो फिर आप खुद बेसहारा हो जाएंगे, आप दूसरों पर बोझ बन जायेंगे और बोझ कबतक…ज़िन्दगी भर तक… और ज़िन्दगी भर बोझ कौन उठाएगा भला? आपके अपने, आपके मित्र, आपके बीवी बच्चे आपकी बाहर की पीड़ा या समस्या को ठीक करने में आपकी मदद कर सकते हैं लेकिन आपकी चमड़ी के भीतर के संसारवाकई समस्याओं और पीड़ाओं से केवल और केवल आपको ही निपटना है। आराम, आलस, आनंद और महत्वाकांक्षा के पीछे अपने शरीर को बर्बाद न करें।

पुनःश्च मैं अक्सर अपने लेख और वक्तव्य में एक बात कहता हूँ कि अगर आपके पास एक स्वस्थ लिवर और पैंक्रियाज़ हैं तो आप एप्पल के संस्थापक और अपने वक़्त के सबसे ज्यादा मालदार स्टीव जॉब्स से भी ज्यादा धनवान हैं। क्योंकि उनका सारा धन मिलकर भी उन्हें ये दो अंग वापस नहीं कर सका। इसलिए प्रिय पाठकों अपने शरीर की कद्र कीजिए, इससे प्रेम कीजिए क्योंकि “जग में तो शरीर से बड़ा साथी नहीं कोई…”


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हम मनुष्य चमत्कार को नमस्कार करते हैं। जो भी अनोखी चीजें दिखती हैं उसके आगे नतमस्तक हो जाते हैं। चमत्कार करके दिखाने वाले के हम अनुयायी, भक्त या बंदे बन जाते हैं। बाबा, फ़क़ीर, जादूगरों, कलाबाजों और झाड़फूंक करने वालों को हमने भगवान तक का दर्जा दे रखा था और दे रखा है। पोटेशियम परमैंगनेट को नारियलों में भरकर उसे खून जैसा लाल रंग दिया गया और उस बाबा या फ़क़ीर के हम अनुयायी बन गए जिसने यह बता दिया कि मैंने तुम्हारी सब भूत बाधाएं/असरात दूर करदी है या तुम्हारे दुश्मन को तुम्हारे रास्ते से हटाने का प्रबंध कर दिया है। फॉस्फोरस को हाथों की उंगलियों पर रगड़कर धुएँ निकालने के चमत्कार या फिर उस धुएं को बोतल में प्रविष्ट करवा देने के चमत्कार को देखकर हम समझ बैठे कि इन्ही बाबा के पास शक्तिशाली जीन कैद है। सोडियम पर पानी डालकर आग लगा देने वाले बाबाओं ने भी अपने भक्तों और बंदों का साम्राज्य खड़ा किया है। कलाबाजियां दिखाकर भभूत, तावीज़, घड़ी, अंडा, सिक्का निकालने वाले बाबाओं ने भी अपने कई अनुयायी बनाए हैं।

क्या वाकई हमें इन छोटे मोटे सड़कछाप बाबाओं के चमत्कार देखकर इनके अनुयायी बन जाना चाहिए? क्या जादूगरी ही पैमाना है किसी के अनुयायी बनने का? नहीं। बिलकुल नहीं। मैं तो रोज़ाना बहुत बड़े बड़े चमत्कार देखता हूँ इस सृष्टि के। पृथ्वी, चंद्रमा, सूर्य और तारों का बिना किसी सहारे के एक निश्चित जगह घूमना वह भी बिना किसी त्रुटी के, क्या यह चमत्कार नहीं है? एक कोशिका से जीवों की उत्पत्ति हो जाना और वह भी अपने आप में पूर्ण, क्या यह चमत्कार नहीं है? सूर्य का अपने निश्चित समय में उगना और सारी सृष्टि को प्रकाशित कर देना तथा उस प्रकाश में सभी के लिए जीवनऊर्जा का होना क्या चमत्कार नहीं है? हमारे शरीर की यह अद्भत रचना और क्रियाविधि क्या चमत्कार नहीं है? हमारी आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, नाक सूंघती है, जीभ स्वाद लेती है, दिमाग का याद रखना और निर्देश देना क्या ये चमत्कार नहीं हैं? बारिश का होना, हवाओं का चलना क्या चमत्कार नहीं है? ना दिखने वाले गुरुत्वाकर्षण बल का सच्चा प्रभाव क्या चमत्कार नहीं है? मछलियों का जल में भी आसानी से जीवन बिताना और पक्षियों का आकाश में उड़ना क्या चमत्कार नहीं है? यह सभी चमत्कार ही हैं जो हम रोज़ देखते हैं लेकिन रोज़ाना होने की वजह से ये हमें चमत्कार नहीं लगते। हम भी अजीब हैं जो रोज़ाना हो उसे महत्वपूर्ण नहीं मानते जबकि रोज़ाना होने वाली घटनाएं ही महत्वपूर्ण होती हैं। उनका महत्व तब पता चलता है जब वे न हो। सोचिये क्या हो अगर एक दिन के लिए सूरज ना निकले तो। हम सभी को सूरज का महत्व समझ आ जाएगा।

तुच्छ चमत्कारों को नमस्कार करना बंद कीजिए, जादूगरों, कलाबाजों, कीमियागिरी करने वालों के झांसे में अब ना फँसे। उससे प्रेम करें और उसी की भक्ति करें जिसने ये सब बड़े बड़े चमत्कार रचे जो हमेशा हमारे सामने हैं, बस ज़रूरत है तो अपनी आँखों को खोलने की। हाँ, उसी सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी खुदा या ईश्वर के दीवाने भक्त बन जाइये जिसने हम सभी को बनाया है।


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पिछले साल की बारिश में जब सभी ओर हरियाली ने आनंद घोल रखा था तभी एक युवक को उसकी पत्नी बेहद बीमार हालात में मेरे पास लाई। उसके चेहरे पर बारिश के आनंद और सुकून की कोई मुस्कान नहीं थी जो हम सभी महसूस कर रहे थे। वह युवक पिछले तीन महीनों से परेशान था- अपनी बेइंतहा कमज़ोरी, पेट की गड़बड़ और गिरते हुए वज़न से। 3 माह में 18 किलो वजन कम हो गया था उसका। पिछले 3 महीनों में वे 5 डॉक्टर बदल चुके थे और किसी को मर्ज समझ नहीं आया लेकिन दवाई सभी ने लिखी। यह भी अजीब चलन है आजकल के डॉक्टरों का कि बीमारी चाहे समझ ना आए लेकिन दवाई ज़रूर देंगे। खैर, मैंने उससे पूछा कि क्या कोई टेंशन या डर या समस्या है जो आपको खाए जा रही है? उसकी पत्नी ने फौरन जवाब दिया कि इनकी माँ के चले जाने के बाद से ही यह सब कुछ हुआ है इन्हें। न खाना ठीक से खाते हैं और न नींद लेते हैं, बस चुपचाप रहने लगे हैं…

मैंने यह सुनकर कहा कि इनकी बीमारी की वजह है इनकी माँ की कमी, बाकि इनके शरीर में न कोई बीमारी का वायरस घुसा है और ना कोई पोषकतत्व कम हुआ है। मैंने उस युवक से पूछा कि “अच्छा बताओ आपकी माँ की रूह को आपकी यह हालत देखकर कैसा महसूस होगा? क्या इससे उनकी रूह परेशान, दुःखी और बेचैन नहीं हो रही होगी? ठीक होने के लिए मेरी एक राय माने और अब आप एक काम करें कि एक बूढ़ी बेसहारा औरत के बेटे बन जाएं जिससे उसे बेटा मिल जाएगा और आपको एक मां। बस एक यही तरीका है आपकी प्यारी माँ की कमी को पूरी करने का।”

उसने मेरा कहना माना और एक अपनी दूर के रिश्ते की चाची को मां बना लिया। हफ़्ते दस दिनों में वह उनके पास जाता और उनकी कुछ मदद कर आता। ईद पर उनके लिए उसने कपड़े बनवाए और रमज़ान से पहले उनके यहाँ खाने के लिए अनाज भी रखवा दिया। वह खुश था और अपनी सभी सेहत की समस्याओं से भी परे जा चुका था। उसका वज़न फिर से 67 किलो हो गया था और चेहरे पर खुशियां लौट आई थी। इसबार की बारिश की रूमानी हरियाली ने उसे भी आनंदित किया और वह मैंने साफ साफ देखा जब वह मुझसे मिलने पिछले हफ्ते क्लीनिक आया था तब। अब मैं और वह जान चुके थे कि हर रोग का इलाज दवाई नहीं है… नेक कामों से भी हज़ारों रोग ठीक किये जा सकते हैं। ध्यान दें कहीं आप भी अपना इलाज परोपकार की जगह दवाओं में तो नहीं खोज रहे हैं।


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एक बार जानवरों ने निर्णय लिया कि वे ‘‘नई दुनिया’’ की समस्याओं से निपटने के लिए साहसिक क़दम उठाएंगे। इसलिए उन्होंने एक स्कूल बनाया। उन्होंने इसका पाठ्यक्रम बनाया, जिसमें दौड़ना, चढ़ना, तैरना और उड़ना शामिल था। पाठ्यक्रम पढ़ाने में आसानी रहे, इसलिए सभी जानवरों को सभी विषय अनिवार्य रूप से लेने थे।

बत्तख तैरने में उत्कृष्ट थी। वह अपनी टीचर से भी ज़्यादा अच्छी तरह तैर लेती थी, लेकिन उड़ने में उसे सिर्फ पास होने लायक नंबर ही मिलते थे और दौड़ने में वह कमज़ोर थी, इसलिए उसे स्कूल ख़त्म होने के बाद रूकना पड़ता था और तैरना छोड़कर दौड़ने का अभ्यास करना पड़ता था। यह सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक कि उसके जालीदार पैर बुरी तरह घिस नहीं गए और वह तैरने में सिर्फ औसत नहीं रह गई। लेकिन इस स्कूल में औसत होना बुरा नहीं माना जाता था, इसलिए बत्तख़ के सिवाय किसी को भी इस बारे में चिंता नहीं हुई।

ख़रगोश दौड़ने में सबसे तेज़ था, लेकिन तैरने का नाम सुनकर ही उसके हाथ-पांव फूल जाते थे।

बाज़ बहुत समस्याएँ पैदा करता था और उसे बार-बार सज़ा देनी पड़ती थीं। चढ़ने की क्लास में वह बाक़ी सभी को हराकर सबसे पहले पेड़ के ऊपर पहुंच जाता था, लेकिन वहां पहुँचने के लिए वह अपने तरीके इस्तेमाल करने पर अड़ जाता था।

साल के अंत में जब परीक्षा हुई, तो ईल मछली का औसत सबसे अच्छा रहा, क्योंकि वह बहुत अच्छी तरह तैर सकती थी, थोड़ा दौड़ सकती थी, चढ़ सकती थी और उड़ सकती थी। उसे सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी का खि़ताब मिला।

क्या इस नीति कथा का कोई संदेश है?

कई गणित में पारंगत बच्चे अंग्रेजी में कमज़ोर होते हैं और वे 8 वीं या 10 वीं में फैल होकर अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं और हम एक अच्छे गणितज्ञ को खो देते हैं। ऐसे ही कई विद्यार्थी विज्ञान में तीक्ष्ण होते हैं तो कई अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में, लेकिन जिस विषय में वे कमज़ोर होते हैं वह उनका कैरिअर बर्बाद कर देता है।

आज की शिक्षा-प्रणाली की स्थापना ‘‘कृषि युग’’ की जरूरतों की पूर्ति के लिये हुई थी। इसकी योजना कृषक परिवारों की आवश्यकताओं के अनुरूप बनी थी जैसे -ग्रीष्मकालीन अवकाश – ताकि बच्चे परिवार की खेती में मदद कर सके। क्योंकि पश्चिम में समर या ग्रीष्म में खेती अधिक होती है। स्कूल दोपहर तक बंद हो जाएं, ताकि बच्चे शाम के कृषि कार्यों में अभिभावकों की मदद कर सके आदि। जबकि आज माता-पिता का कार्य समय परिवर्तित हो चुका है और बच्चे उनके घर रहने के समय में स्कूल में होते हैं और ऑफिस के समय में घर पर आ जाते हैं। जब तक माता-पिता ऑफिस से वापस आते हैं तब तक बच्चे सो चूके होते हैं। पुरातन काल से चला आ रहा हमारे स्कूलों के समय को भी हमारे शिक्षाविद् बदल नहीं पा रहे हैं। और हमारे देश की बात करें तो ग्रीष्म ऋतु में तो हमारे यहां खेती भी अधिक नहीं होती फिर भी गर्मियों में बेवजह की छुट्टियाँ दे दी जाती हैं। हम पश्चिम जगत और अंग्रेजों की नीतियों के इतने कायल हैं कि उनके पवित्र दिनों को ही हम अपनी छुट्टी रखते हैं (इसाईयों का पवित्र दिन रविवार और यहुदियों का दिन शनिवार) जबकि हमारे देश में हिन्दु-मुस्लिम की संख्या इसाईयों और यहुदियों से कई गुना अधिक है। ( प्रिय पाठकों मैं यहाँ साम्प्रदायिक बिल्कुल नहीं हूँ। मैं तो बस हमारे विशेषज्ञों की मुढ़ता का प्रमाण आपके सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ।)

जिस बादशाह ने सबसे पहले बाएं हाथ में अंगूठी पहनने का रिवाज़ डाला, उसका नाम जमशेद था। लोगों ने उससे पूछा, ‘‘आपने दाएं के मुकाबले बाएं हाथ को क्यों पसंद किया ? और उसे अंगूठी से क्यों सजाया ?’’ बादशाह जमशेद बोला, ‘‘दाहिने हाथ को तो इस बात से ही रौनक हासिल है कि वह सीधा हाथ है।”

उपरोक्त नीति-कथा के ठीक विपरीत हमारी शिक्षा प्रणाली कमज़ोर पिछड़े विद्यार्थियों का निर्दयतापूर्वक दमन करती है। वह बौद्धिक रूप से तेज़ छात्रों को तो निरन्तर आगे बढ़ाती है जबकि इसके असल कार्य पिछड़े छात्रों की संभावनाओं को निखारने में यह प्रणाली बिल्कुल नाकाम है। यह हमारी शिक्षा प्रणाली की दूसरी खामी है।

जब कक्षा का रिज़ल्ट आता है तो एक टॉपर विद्यार्थी को छोड़ बाकि सभी विद्यार्थी कुंठाग्रस्त हो जाते हैं कि वे प्रथम नहीं हैं, वे अच्छे विद्यार्थी नहीं हैं, उनमें वह समझ नहीं है जो कि आवश्यक है। यह परिणाम जब शहरस्तरीय और राज्यस्तरीय होते हैं तो संख्या लाखों में और जब राष्ट्रस्तरीय होते हैं तो हम कुंठित छात्रों की संख्या को करोड़ों में कर देते हैं। यही वज़ह है कि हमारे देश में युवाओं में मृत्यु की एक बड़ी वजह आत्महत्या हो चुकी है जिसने आंकड़ों के मामले में रोड साइड़ एक्सीडेंट से होने वाली मृत्यु को भी पीछे छोड़ दिया है।

तीसरी हमारे शिक्षा प्रणाली के साथ समस्या यह है कि वह हमें गलतियों से शिक्षा लेना नहीं बताती। जबकि वास्तविक रूप से सीखने के लिए गलतियां ज़रूरी हैं। सीखने की प्रक्रिया कोशिश करने और गलतियां करने से ही सम्पन्न होती है। मुझे बताएं क्या एड़ीसन ने बिना गलती किए बल्ब का आविष्कार कर दिया था? याद कीजिए न्यूटन को जिन्हें मंद बुद्धि कहा जाता था, और याद कीजिए आइंस्टाईन को जो अपनी कक्षा में फेल हो गए थे। क्या सिकंदर बिना गलती किए ही युद्ध और रणनीतियों में पारंगत हो गए थे? नहीं, ये सभी अपनी गलतियों से ही सीखे हैं? जब हम विश्व के महानतम उपलब्धिकर्ताओं, वैज्ञानिकों, कलाकारों, व्यवसायियों, राजनीतिज्ञों, संगीतकारों, लेखकों एवं रणनीतिकारों के बारे में पढ़ेंगे तो पाएंगे की उनका जीवन गलतियों से भरा पड़ा था, किन्तु अहम बात यह है कि उन्होंने उन गलतियों से सीखा और वे आगे बढ़ते गए…।

मेरे साथ-साथ आपने भी यह महसूस किया होगा कि शिक्षण संस्थान सफलता और हमारी काबिलियत की क्षमताओं को घटा देते हैं, वे हमें पुंजीवाद के लिए एक घोड़े की तरह तैयार करते हैं जो जीवन भर अदृश्य जिम्मेदारियों का भार उठाकर दौड़ता रहता है जाने किस रेस में, जाने कौन-सी रैंक पाने के लिए। ये दौड़, ये करियर बनाने के फंदे हमसे हमारे सपने, हमारी दुनिया और हमारी महानतम क्षमताओं को छिन लेते हैं।

चौथी बड़ी गलती हमारी शिक्षा प्रणाली की यह है कि – वह हमें व्यावहारिकता, पारिवारिक रिश्तों का ज्ञान और प्रसन्न रहने जैसी मूलभूत शिक्षा नहीं देती। किसी व्यक्ति के जीवन की खुशियों की सबसे बड़ी वजह उसका पारिवारिक जीवन होता है लेकिन हमारी शिक्षा प्रणाली इस विषय पर बिल्कुल खामोश है। एक आईएएस क्वालिफाइड व्यक्ति से आप पूछेंगे की पत्नी से किस प्रकार व्यवहार किया जाए, बच्चों के लालन पालन के क्या नियम है, माता-पिता की मनोभावनाएँ कैसी होती है बुढ़ापे में और उन्हें कैसे प्रसन्न रखा जाएं? इन बातों के लिए उसके पास कोई ज्ञान नहीं है और यही वज़ह है कि उच्च श्रेणी के कर्मचारी या अफसर अक़्सर अपने पारिवारिक जीवन में विफल होते हैं और रिटायरमेंट के बाद वे एकांत या अवसाद से पीढ़ित हो जाते हैं।

पुनश्च: हमने हमारे क्लीनिक पर आए 478 अवसाद से पीढ़ित लोगों का एक रेंडम सर्वे किया तो पाया कि 77℅ रोगी ग्रेज्यूएट थे, 1℅ रोगी तो स्वयं शिक्षक ही थे और सबसे आर्श्चजनक बात तो यह कि इन 478 रोगियों में से एक भी रोगी अनपढ़ नहीं था। इसका क्या अर्थ निकाले? क्या हमारी शिक्षा हमें कुंठित कर रही है? या ये हमें केवल एक कर्मचारी बनाने पर आमादा है और इसका यही एक मात्र लक्ष्य है? या हम कुछ गलत दिशा में भटके हुए हैं और अपनी भावी पीढ़ी को भी भटका रहे हैं? हॉ, प्रिय पाठकों ये सवाल ही जवाब हैं।


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