एक बार जानवरों ने निर्णय लिया कि वे ‘‘नई दुनिया’’ की समस्याओं से निपटने के लिए साहसिक क़दम उठाएंगे। इसलिए उन्होंने एक स्कूल बनाया। उन्होंने इसका पाठ्यक्रम बनाया, जिसमें दौड़ना, चढ़ना, तैरना और उड़ना शामिल था। पाठ्यक्रम पढ़ाने में आसानी रहे, इसलिए सभी जानवरों को सभी विषय अनिवार्य रूप से लेने थे।
बत्तख तैरने में उत्कृष्ट थी। वह अपनी टीचर से भी ज़्यादा अच्छी तरह तैर लेती थी, लेकिन उड़ने में उसे सिर्फ पास होने लायक नंबर ही मिलते थे और दौड़ने में वह कमज़ोर थी, इसलिए उसे स्कूल ख़त्म होने के बाद रूकना पड़ता था और तैरना छोड़कर दौड़ने का अभ्यास करना पड़ता था। यह सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक कि उसके जालीदार पैर बुरी तरह घिस नहीं गए और वह तैरने में सिर्फ औसत नहीं रह गई। लेकिन इस स्कूल में औसत होना बुरा नहीं माना जाता था, इसलिए बत्तख़ के सिवाय किसी को भी इस बारे में चिंता नहीं हुई।
ख़रगोश दौड़ने में सबसे तेज़ था, लेकिन तैरने का नाम सुनकर ही उसके हाथ-पांव फूल जाते थे।
बाज़ बहुत समस्याएँ पैदा करता था और उसे बार-बार सज़ा देनी पड़ती थीं। चढ़ने की क्लास में वह बाक़ी सभी को हराकर सबसे पहले पेड़ के ऊपर पहुंच जाता था, लेकिन वहां पहुँचने के लिए वह अपने तरीके इस्तेमाल करने पर अड़ जाता था।
साल के अंत में जब परीक्षा हुई, तो ईल मछली का औसत सबसे अच्छा रहा, क्योंकि वह बहुत अच्छी तरह तैर सकती थी, थोड़ा दौड़ सकती थी, चढ़ सकती थी और उड़ सकती थी। उसे सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी का खि़ताब मिला।
क्या इस नीति कथा का कोई संदेश है?
कई गणित में पारंगत बच्चे अंग्रेजी में कमज़ोर होते हैं और वे 8 वीं या 10 वीं में फैल होकर अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं और हम एक अच्छे गणितज्ञ को खो देते हैं। ऐसे ही कई विद्यार्थी विज्ञान में तीक्ष्ण होते हैं तो कई अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में, लेकिन जिस विषय में वे कमज़ोर होते हैं वह उनका कैरिअर बर्बाद कर देता है।
आज की शिक्षा-प्रणाली की स्थापना ‘‘कृषि युग’’ की जरूरतों की पूर्ति के लिये हुई थी। इसकी योजना कृषक परिवारों की आवश्यकताओं के अनुरूप बनी थी जैसे -ग्रीष्मकालीन अवकाश – ताकि बच्चे परिवार की खेती में मदद कर सके। क्योंकि पश्चिम में समर या ग्रीष्म में खेती अधिक होती है। स्कूल दोपहर तक बंद हो जाएं, ताकि बच्चे शाम के कृषि कार्यों में अभिभावकों की मदद कर सके आदि। जबकि आज माता-पिता का कार्य समय परिवर्तित हो चुका है और बच्चे उनके घर रहने के समय में स्कूल में होते हैं और ऑफिस के समय में घर पर आ जाते हैं। जब तक माता-पिता ऑफिस से वापस आते हैं तब तक बच्चे सो चूके होते हैं। पुरातन काल से चला आ रहा हमारे स्कूलों के समय को भी हमारे शिक्षाविद् बदल नहीं पा रहे हैं। और हमारे देश की बात करें तो ग्रीष्म ऋतु में तो हमारे यहां खेती भी अधिक नहीं होती फिर भी गर्मियों में बेवजह की छुट्टियाँ दे दी जाती हैं। हम पश्चिम जगत और अंग्रेजों की नीतियों के इतने कायल हैं कि उनके पवित्र दिनों को ही हम अपनी छुट्टी रखते हैं (इसाईयों का पवित्र दिन रविवार और यहुदियों का दिन शनिवार) जबकि हमारे देश में हिन्दु-मुस्लिम की संख्या इसाईयों और यहुदियों से कई गुना अधिक है। ( प्रिय पाठकों मैं यहाँ साम्प्रदायिक बिल्कुल नहीं हूँ। मैं तो बस हमारे विशेषज्ञों की मुढ़ता का प्रमाण आपके सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ।)
जिस बादशाह ने सबसे पहले बाएं हाथ में अंगूठी पहनने का रिवाज़ डाला, उसका नाम जमशेद था। लोगों ने उससे पूछा, ‘‘आपने दाएं के मुकाबले बाएं हाथ को क्यों पसंद किया ? और उसे अंगूठी से क्यों सजाया ?’’ बादशाह जमशेद बोला, ‘‘दाहिने हाथ को तो इस बात से ही रौनक हासिल है कि वह सीधा हाथ है।”
उपरोक्त नीति-कथा के ठीक विपरीत हमारी शिक्षा प्रणाली कमज़ोर पिछड़े विद्यार्थियों का निर्दयतापूर्वक दमन करती है। वह बौद्धिक रूप से तेज़ छात्रों को तो निरन्तर आगे बढ़ाती है जबकि इसके असल कार्य पिछड़े छात्रों की संभावनाओं को निखारने में यह प्रणाली बिल्कुल नाकाम है। यह हमारी शिक्षा प्रणाली की दूसरी खामी है।
जब कक्षा का रिज़ल्ट आता है तो एक टॉपर विद्यार्थी को छोड़ बाकि सभी विद्यार्थी कुंठाग्रस्त हो जाते हैं कि वे प्रथम नहीं हैं, वे अच्छे विद्यार्थी नहीं हैं, उनमें वह समझ नहीं है जो कि आवश्यक है। यह परिणाम जब शहरस्तरीय और राज्यस्तरीय होते हैं तो संख्या लाखों में और जब राष्ट्रस्तरीय होते हैं तो हम कुंठित छात्रों की संख्या को करोड़ों में कर देते हैं। यही वज़ह है कि हमारे देश में युवाओं में मृत्यु की एक बड़ी वजह आत्महत्या हो चुकी है जिसने आंकड़ों के मामले में रोड साइड़ एक्सीडेंट से होने वाली मृत्यु को भी पीछे छोड़ दिया है।
तीसरी हमारे शिक्षा प्रणाली के साथ समस्या यह है कि वह हमें गलतियों से शिक्षा लेना नहीं बताती। जबकि वास्तविक रूप से सीखने के लिए गलतियां ज़रूरी हैं। सीखने की प्रक्रिया कोशिश करने और गलतियां करने से ही सम्पन्न होती है। मुझे बताएं क्या एड़ीसन ने बिना गलती किए बल्ब का आविष्कार कर दिया था? याद कीजिए न्यूटन को जिन्हें मंद बुद्धि कहा जाता था, और याद कीजिए आइंस्टाईन को जो अपनी कक्षा में फेल हो गए थे। क्या सिकंदर बिना गलती किए ही युद्ध और रणनीतियों में पारंगत हो गए थे? नहीं, ये सभी अपनी गलतियों से ही सीखे हैं? जब हम विश्व के महानतम उपलब्धिकर्ताओं, वैज्ञानिकों, कलाकारों, व्यवसायियों, राजनीतिज्ञों, संगीतकारों, लेखकों एवं रणनीतिकारों के बारे में पढ़ेंगे तो पाएंगे की उनका जीवन गलतियों से भरा पड़ा था, किन्तु अहम बात यह है कि उन्होंने उन गलतियों से सीखा और वे आगे बढ़ते गए…।
मेरे साथ-साथ आपने भी यह महसूस किया होगा कि शिक्षण संस्थान सफलता और हमारी काबिलियत की क्षमताओं को घटा देते हैं, वे हमें पुंजीवाद के लिए एक घोड़े की तरह तैयार करते हैं जो जीवन भर अदृश्य जिम्मेदारियों का भार उठाकर दौड़ता रहता है जाने किस रेस में, जाने कौन-सी रैंक पाने के लिए। ये दौड़, ये करियर बनाने के फंदे हमसे हमारे सपने, हमारी दुनिया और हमारी महानतम क्षमताओं को छिन लेते हैं।
चौथी बड़ी गलती हमारी शिक्षा प्रणाली की यह है कि – वह हमें व्यावहारिकता, पारिवारिक रिश्तों का ज्ञान और प्रसन्न रहने जैसी मूलभूत शिक्षा नहीं देती। किसी व्यक्ति के जीवन की खुशियों की सबसे बड़ी वजह उसका पारिवारिक जीवन होता है लेकिन हमारी शिक्षा प्रणाली इस विषय पर बिल्कुल खामोश है। एक आईएएस क्वालिफाइड व्यक्ति से आप पूछेंगे की पत्नी से किस प्रकार व्यवहार किया जाए, बच्चों के लालन पालन के क्या नियम है, माता-पिता की मनोभावनाएँ कैसी होती है बुढ़ापे में और उन्हें कैसे प्रसन्न रखा जाएं? इन बातों के लिए उसके पास कोई ज्ञान नहीं है और यही वज़ह है कि उच्च श्रेणी के कर्मचारी या अफसर अक़्सर अपने पारिवारिक जीवन में विफल होते हैं और रिटायरमेंट के बाद वे एकांत या अवसाद से पीढ़ित हो जाते हैं।
पुनश्च: हमने हमारे क्लीनिक पर आए 478 अवसाद से पीढ़ित लोगों का एक रेंडम सर्वे किया तो पाया कि 77℅ रोगी ग्रेज्यूएट थे, 1℅ रोगी तो स्वयं शिक्षक ही थे और सबसे आर्श्चजनक बात तो यह कि इन 478 रोगियों में से एक भी रोगी अनपढ़ नहीं था। इसका क्या अर्थ निकाले? क्या हमारी शिक्षा हमें कुंठित कर रही है? या ये हमें केवल एक कर्मचारी बनाने पर आमादा है और इसका यही एक मात्र लक्ष्य है? या हम कुछ गलत दिशा में भटके हुए हैं और अपनी भावी पीढ़ी को भी भटका रहे हैं? हॉ, प्रिय पाठकों ये सवाल ही जवाब हैं।