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CLASSIC LIST

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एक बार जानवरों ने निर्णय लिया कि वे ‘‘नई दुनिया’’ की समस्याओं से निपटने के लिए साहसिक क़दम उठाएंगे। इसलिए उन्होंने एक स्कूल बनाया। उन्होंने इसका पाठ्यक्रम बनाया, जिसमें दौड़ना, चढ़ना, तैरना और उड़ना शामिल था। पाठ्यक्रम पढ़ाने में आसानी रहे, इसलिए सभी जानवरों को सभी विषय अनिवार्य रूप से लेने थे।

बत्तख तैरने में उत्कृष्ट थी। वह अपनी टीचर से भी ज़्यादा अच्छी तरह तैर लेती थी, लेकिन उड़ने में उसे सिर्फ पास होने लायक नंबर ही मिलते थे और दौड़ने में वह कमज़ोर थी, इसलिए उसे स्कूल ख़त्म होने के बाद रूकना पड़ता था और तैरना छोड़कर दौड़ने का अभ्यास करना पड़ता था। यह सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक कि उसके जालीदार पैर बुरी तरह घिस नहीं गए और वह तैरने में सिर्फ औसत नहीं रह गई। लेकिन इस स्कूल में औसत होना बुरा नहीं माना जाता था, इसलिए बत्तख़ के सिवाय किसी को भी इस बारे में चिंता नहीं हुई।

ख़रगोश दौड़ने में सबसे तेज़ था, लेकिन तैरने का नाम सुनकर ही उसके हाथ-पांव फूल जाते थे।

बाज़ बहुत समस्याएँ पैदा करता था और उसे बार-बार सज़ा देनी पड़ती थीं। चढ़ने की क्लास में वह बाक़ी सभी को हराकर सबसे पहले पेड़ के ऊपर पहुंच जाता था, लेकिन वहां पहुँचने के लिए वह अपने तरीके इस्तेमाल करने पर अड़ जाता था।

साल के अंत में जब परीक्षा हुई, तो ईल मछली का औसत सबसे अच्छा रहा, क्योंकि वह बहुत अच्छी तरह तैर सकती थी, थोड़ा दौड़ सकती थी, चढ़ सकती थी और उड़ सकती थी। उसे सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी का खि़ताब मिला।

क्या इस नीति कथा का कोई संदेश है?

कई गणित में पारंगत बच्चे अंग्रेजी में कमज़ोर होते हैं और वे 8 वीं या 10 वीं में फैल होकर अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं और हम एक अच्छे गणितज्ञ को खो देते हैं। ऐसे ही कई विद्यार्थी विज्ञान में तीक्ष्ण होते हैं तो कई अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में, लेकिन जिस विषय में वे कमज़ोर होते हैं वह उनका कैरिअर बर्बाद कर देता है।

आज की शिक्षा-प्रणाली की स्थापना ‘‘कृषि युग’’ की जरूरतों की पूर्ति के लिये हुई थी। इसकी योजना कृषक परिवारों की आवश्यकताओं के अनुरूप बनी थी जैसे -ग्रीष्मकालीन अवकाश – ताकि बच्चे परिवार की खेती में मदद कर सके। क्योंकि पश्चिम में समर या ग्रीष्म में खेती अधिक होती है। स्कूल दोपहर तक बंद हो जाएं, ताकि बच्चे शाम के कृषि कार्यों में अभिभावकों की मदद कर सके आदि। जबकि आज माता-पिता का कार्य समय परिवर्तित हो चुका है और बच्चे उनके घर रहने के समय में स्कूल में होते हैं और ऑफिस के समय में घर पर आ जाते हैं। जब तक माता-पिता ऑफिस से वापस आते हैं तब तक बच्चे सो चूके होते हैं। पुरातन काल से चला आ रहा हमारे स्कूलों के समय को भी हमारे शिक्षाविद् बदल नहीं पा रहे हैं। और हमारे देश की बात करें तो ग्रीष्म ऋतु में तो हमारे यहां खेती भी अधिक नहीं होती फिर भी गर्मियों में बेवजह की छुट्टियाँ दे दी जाती हैं। हम पश्चिम जगत और अंग्रेजों की नीतियों के इतने कायल हैं कि उनके पवित्र दिनों को ही हम अपनी छुट्टी रखते हैं (इसाईयों का पवित्र दिन रविवार और यहुदियों का दिन शनिवार) जबकि हमारे देश में हिन्दु-मुस्लिम की संख्या इसाईयों और यहुदियों से कई गुना अधिक है। ( प्रिय पाठकों मैं यहाँ साम्प्रदायिक बिल्कुल नहीं हूँ। मैं तो बस हमारे विशेषज्ञों की मुढ़ता का प्रमाण आपके सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ।)

जिस बादशाह ने सबसे पहले बाएं हाथ में अंगूठी पहनने का रिवाज़ डाला, उसका नाम जमशेद था। लोगों ने उससे पूछा, ‘‘आपने दाएं के मुकाबले बाएं हाथ को क्यों पसंद किया ? और उसे अंगूठी से क्यों सजाया ?’’ बादशाह जमशेद बोला, ‘‘दाहिने हाथ को तो इस बात से ही रौनक हासिल है कि वह सीधा हाथ है।”

उपरोक्त नीति-कथा के ठीक विपरीत हमारी शिक्षा प्रणाली कमज़ोर पिछड़े विद्यार्थियों का निर्दयतापूर्वक दमन करती है। वह बौद्धिक रूप से तेज़ छात्रों को तो निरन्तर आगे बढ़ाती है जबकि इसके असल कार्य पिछड़े छात्रों की संभावनाओं को निखारने में यह प्रणाली बिल्कुल नाकाम है। यह हमारी शिक्षा प्रणाली की दूसरी खामी है।

जब कक्षा का रिज़ल्ट आता है तो एक टॉपर विद्यार्थी को छोड़ बाकि सभी विद्यार्थी कुंठाग्रस्त हो जाते हैं कि वे प्रथम नहीं हैं, वे अच्छे विद्यार्थी नहीं हैं, उनमें वह समझ नहीं है जो कि आवश्यक है। यह परिणाम जब शहरस्तरीय और राज्यस्तरीय होते हैं तो संख्या लाखों में और जब राष्ट्रस्तरीय होते हैं तो हम कुंठित छात्रों की संख्या को करोड़ों में कर देते हैं। यही वज़ह है कि हमारे देश में युवाओं में मृत्यु की एक बड़ी वजह आत्महत्या हो चुकी है जिसने आंकड़ों के मामले में रोड साइड़ एक्सीडेंट से होने वाली मृत्यु को भी पीछे छोड़ दिया है।

तीसरी हमारे शिक्षा प्रणाली के साथ समस्या यह है कि वह हमें गलतियों से शिक्षा लेना नहीं बताती। जबकि वास्तविक रूप से सीखने के लिए गलतियां ज़रूरी हैं। सीखने की प्रक्रिया कोशिश करने और गलतियां करने से ही सम्पन्न होती है। मुझे बताएं क्या एड़ीसन ने बिना गलती किए बल्ब का आविष्कार कर दिया था? याद कीजिए न्यूटन को जिन्हें मंद बुद्धि कहा जाता था, और याद कीजिए आइंस्टाईन को जो अपनी कक्षा में फेल हो गए थे। क्या सिकंदर बिना गलती किए ही युद्ध और रणनीतियों में पारंगत हो गए थे? नहीं, ये सभी अपनी गलतियों से ही सीखे हैं? जब हम विश्व के महानतम उपलब्धिकर्ताओं, वैज्ञानिकों, कलाकारों, व्यवसायियों, राजनीतिज्ञों, संगीतकारों, लेखकों एवं रणनीतिकारों के बारे में पढ़ेंगे तो पाएंगे की उनका जीवन गलतियों से भरा पड़ा था, किन्तु अहम बात यह है कि उन्होंने उन गलतियों से सीखा और वे आगे बढ़ते गए…।

मेरे साथ-साथ आपने भी यह महसूस किया होगा कि शिक्षण संस्थान सफलता और हमारी काबिलियत की क्षमताओं को घटा देते हैं, वे हमें पुंजीवाद के लिए एक घोड़े की तरह तैयार करते हैं जो जीवन भर अदृश्य जिम्मेदारियों का भार उठाकर दौड़ता रहता है जाने किस रेस में, जाने कौन-सी रैंक पाने के लिए। ये दौड़, ये करियर बनाने के फंदे हमसे हमारे सपने, हमारी दुनिया और हमारी महानतम क्षमताओं को छिन लेते हैं।

चौथी बड़ी गलती हमारी शिक्षा प्रणाली की यह है कि – वह हमें व्यावहारिकता, पारिवारिक रिश्तों का ज्ञान और प्रसन्न रहने जैसी मूलभूत शिक्षा नहीं देती। किसी व्यक्ति के जीवन की खुशियों की सबसे बड़ी वजह उसका पारिवारिक जीवन होता है लेकिन हमारी शिक्षा प्रणाली इस विषय पर बिल्कुल खामोश है। एक आईएएस क्वालिफाइड व्यक्ति से आप पूछेंगे की पत्नी से किस प्रकार व्यवहार किया जाए, बच्चों के लालन पालन के क्या नियम है, माता-पिता की मनोभावनाएँ कैसी होती है बुढ़ापे में और उन्हें कैसे प्रसन्न रखा जाएं? इन बातों के लिए उसके पास कोई ज्ञान नहीं है और यही वज़ह है कि उच्च श्रेणी के कर्मचारी या अफसर अक़्सर अपने पारिवारिक जीवन में विफल होते हैं और रिटायरमेंट के बाद वे एकांत या अवसाद से पीढ़ित हो जाते हैं।

पुनश्च: हमने हमारे क्लीनिक पर आए 478 अवसाद से पीढ़ित लोगों का एक रेंडम सर्वे किया तो पाया कि 77℅ रोगी ग्रेज्यूएट थे, 1℅ रोगी तो स्वयं शिक्षक ही थे और सबसे आर्श्चजनक बात तो यह कि इन 478 रोगियों में से एक भी रोगी अनपढ़ नहीं था। इसका क्या अर्थ निकाले? क्या हमारी शिक्षा हमें कुंठित कर रही है? या ये हमें केवल एक कर्मचारी बनाने पर आमादा है और इसका यही एक मात्र लक्ष्य है? या हम कुछ गलत दिशा में भटके हुए हैं और अपनी भावी पीढ़ी को भी भटका रहे हैं? हॉ, प्रिय पाठकों ये सवाल ही जवाब हैं।


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सेहत सबसे बड़ी नेमत है। इसके बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते। हाँ, हम डॉक्टर बिना सेहत के अपने रोगियों का इलाज भी नहीं कर सकते। मेरा मानना है कि ऐसा कहना गलत है कि सेहत ही दौलत है, जबकि सत्य यह है कि सेहत दौलत से कहीं बढ़कर है। हमारी सेहत ही हमारा जीवन है। इससे बढ़कर कोई मित्र और कोई रिश्तेदार नही। यह हमारा जीवन आनंद से भर देती है और इसके बिना जीवन से आनन्द और सुख चला जाता है। मैं अपनी सेहत के लिए निम्न बातों का ख्याल रखता हूँ।

गहरी सांसें

साँसों से बढ़कर कोई भी ज़रूरी काम नहीं है जीवन को बचाने और स्वयं को सेहतमंद रखने के लिए। साँसों से अच्छा कोई टॉनिक नहीं है इस दुनिया में। इसलिए मैं जब भी याद आता है गहरी गहरी सांसें लेता हूँ। यह वाकई तुरंत राहत, शक्ति और शांति देती है। अभी आप भी गहरी सांस लेकर देखिए आपको भी इसका अनुभव हो जाएगा।

3 किलोमीटर चलना

मैं अपने रोगियों से एक बात हमेशा बोलता हूँ कि “अगर आप नहीं चलेंगे तो दवाइयां चलने लगेंगी।” मैं 3 किलोमीटर रोज़ाना चलता हूँ। मेरा वज़न नियंत्रण में रहता है लेकिन यदि यह थोड़ा भी बढ़ने लगता है तो मैं थोड़ा और ज्यादा चलने लगता हूँ। कब्ज़, अपच, तनाव, थकान, अनिंद्रा से मुझे यह बचाता है।

रीढ़ की मालिश

रीढ़ हमारी सेहत की भी रीढ़ है। इसमें हमारे शरीर का एक बहुत बहुत महत्वपूर्ण अंग स्पाइनल कॉर्ड होता है जो कि मस्तिष्क का बाकि के शरीर से सम्बंध है। अगर हम इसकी मालिश करलें तो पूरा शरीर स्वस्थ और सुकून में रहता है। इसके लिए मैं इलेक्ट्रॉनिक मसाजर की मदद ले लेता हूँ। थोड़ा सा आयल लगाकर मैं इन बहुत ही आसान और सस्ते मसाजर से 10 से 15 मिनट मसाज कर लेता हूँ। यह वाकई बहुत आनंददायक और ज़रूरी है।

सही पोश्चर

रीढ़ का महत्व मैंने आपको पहले ही बताया है। अगर हमारा पॉश्चर गलत होगा तो हमारी स्पाइनल कॉर्ड और दूसरी नर्व कंप्रेस होगी और हम कमज़ोर, बीमार और दर्द की दुकान बन जाएंगे। मैं रोज़ाना क्लीनिक पर 6 से 8 घंटे बैठता हूँ, किताब और आर्टिकल लिखने के लिए और किताबें पढ़ने के लिए भी मुझे 2 से 3 घंटे बैठना पड़ता है। अगर मैं सही पोश्चर में नही बैठूं तो बहुत जल्द सर्वाइकल स्पॉन्डिलोसिस, कमर दर्द आदि से पीड़ित हो जाऊंगा। टेबल और कुर्सी का सही अनुपात और गर्दन तथा कमर को न झुकाना यह दो मेरे बैठने और खड़े रहने के नियम है।

सही और समय पर खाना-पीना

भोजन सही और समय पर करता हूँ। बार बार नहीं खाता। एक निश्चित समय पर ही भोजन करता हूँ। खाते वक़्त ध्यान रखता हूँ कि कोई हानिकारक चीज पेट में न जाए। रिफाइंड शुगर, रिफाइंड ऑइल, रिफाइंड नमक और रिफाइंड आटे से दूर रहता हूँ। रिफाइंड शक्कर भी केवल दिनभर में 3 चम्मच (चाय वगैरह में) लेता हूँ। ऑर्गेनिक खाद्यपदार्थ को प्राथमिकता देता हूँ। फ्रीज़ का ठंडा पानी नहीं पीता। जंकफूड और व्यसनों से कोसो दूर रहता हूँ।

8 घंटे की नींद

रात में 8 घंटे सोता हूँ क्योंकि मुझे पता है कि नींद भोजन से ज्यादा आवश्यक है जीवित और स्वस्थ रहने के लिए। सोते समय पानी पीकर सोता हूँ। नरम गद्दे और ऊंचे तकिये पर नहीं सोता। हवा अच्छे से आए और जाए इसलिए खिड़की और एग्जॉस्ट फैन को खोलकर सोता हूँ।

सकारात्मक सोच

मैं जानता हूँ कि सेहत और जीवन में आनंद सकारात्मक सोच के बिना पाए ही नहीं जा सकते। नकारात्मक लोगों से दूर रहता हूँ। नकारात्मक टिप्पणियों को नज़रंदाज़ करता हूँ। किसी से कोई उम्मीद नहीं रखता। पांच वक़्त की नमाज़ अदा करता हूँ जिससे ईश्वर की आस्था मुझे सुकून से भर देती है। मुझे शक्ति मिलती है और मैं भविष्य को लेकर निश्चिंत हो जाता हूँ। प्रकृति को निहारता हूँ। किसी से घृणा और नफरत नहीं करता। सबसे प्रेम और दया का भाव मुझे जीवन का परमानंद प्रदान करती हैं।


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हिन्दू धर्मावलंबियों की सबसे पवित्र पुस्तकों में से एक गीता में महाभारत के युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण द्वारा अजुर्न को दिये गए उपदेशों का संकलन है। श्रीकृष्ण द्वारा दिये गए इन उपदेशों को संजय द्वारा धृतराष्ट्र को बताया जाता है। संजय द्वारा बताए गए 700 श्लोकों को गीता में 18 अध्यायों में बांटा गया है। गीता में संजय के द्वारा कुरुक्षेत्र से श्रीकृष्ण और अर्जुन के वार्तालाप की रिपोर्टिंग कौरवों के राजा धृतराष्ट्र को सुनाई जा रही है। जिससे भारत को तीन योग कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग सीखने को मिले।

इस रिपोर्टिंग में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं- एक तो यह कि संजय द्वारा अपनी तरफ से कुछ भी जोड़ा या घटाया नहीं गया था और दूसरा यह कि उन्होंने धृतराष्ट्र को बिना विचलित हुए या डरे जो सत्य था वह बताया। हमारे पत्रकार यदि यह दो गुण अपना लें तो वे इस देश को महान और आदर्श देश बना सकते हैं। पत्रकार सनसनी रच रहे हैं जिसमें सत्य कहीं पीछे छूट जाता है। वे खबरों में अपने विचार या विचारधारा और जोड़ देते हैं जो खबर को पूरी तरह नष्ट कर देता है। खबरों में जोड़ घटाव और एक विशेष एंगल से दिखाकर वे जज की भूमिका में आ जाते हैं और अपने फैसले सुनाने लगते हैं। प्रिय पत्रकार महोदय आप संवाददाता हैं जज नहीं। फैसला खबर को देखकर हम आम लोग लेंगे आप नहीं।

संजय के दूसरे गुण को भी पत्रकारों को आत्मसात कर लेना चाहिए कि शक्ति या शासक के सामने अविचलित रहें, बिना डरे और बिना लालच के सत्य दिखाएं। जैसा कि संजय अविचलित और बेख़ौफ़ हैं धृतराष्ट्र के सामने। शक्तियों के खिलाफ सत्य दिखाने से रोकने की दो ही तो वजह होती हैं- एक ख़ौफ़ और दूसरा लालच। सम्मानीय पत्रकार बंधुओ आप हमारे लिए पत्रकार बने हैं इन शासकों के लिए नहीं…यह सत्य अमानत है हम आम लोगों की। आप भी प्लीज़ संजय बन जाइये और हमें सत्य दिखाइए फिर हम आपको वह देंगे जो कोई भी सरकार नहीं दे सकती…हाँ सच्चे और महान पत्रकार की पदवी। और जब यह आपको मिल जाएंगे तो निःसंदेह आपको ईमानदारी से कमाया बहुत सारा धन भी मिलेगा ही। याद रखिए फ़िज़ा तो आपके खिलाफ है, आपके वजूद को खत्म करने के लिए सोशल मीडिया आ गया है लेकिन इतनी सारी फेक और सच्ची खबरों में अंतर करने के लिए हमें और ज्यादा सच्चे पत्रकारों की ज़रूरत पड़ेगी। क्योंकि जौहरी की ज़रूरत तब सबसे ज्यादा महसूस होती जब नकली हीरों के ढेर में से असली हीरा चुनना हो। लेकिन अगर आप अपने प्रोफेशन के प्रति ईमानदार नहीं रहे तो पत्रकारों की विलुप्ति की वजह आप भी होंगे। अहमद फराज़ का यह शेर आप चाहें तो अपने नोटिस बोर्ड पर या अपने वॉलेट में लिखकर रख लें-

मेरा कलम तो अमानत है मेरे लोगों की,
मेरा कलम तो अदालत मेरी ज़मीर की है।
इसीलिए तो जो लिखा तपा के जां से लिखा,
तभी तो लोच कमान की, ज़ुबान तीर की है।


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मेरा चिकित्सकीय अनुभव मुझे यही सिखाता है किः
‘‘सच्चा मित्र वह है जिसके होने पर आप डॉक्टर, दवाई और बीमारियाँ सब कुछ भूल जाते हैं।’’

हाँ, सच्चा मित्र एक चिकित्सक भी होता है, वह औषधि भी है और वह बीमारियों को चुटकी में नष्ट कर देने वाली प्रार्थना भी। मैंने अपने चिकित्सा कैरियर में यह बात बहुत अधिक बार महसूस की है कि सच्चे मित्र के न होने पर या सच्चे मित्र की मृत्यु के बाद या सच्चे मित्र का साथ छूट जाने पर लोगों के स्वास्थ्य पर बहुत ही ज्यादा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, तकरीबन इतना ही जितना कि कैंसर से।

भावनात्मक आदान-प्रदान के सकारात्मक पहलू का लाभ लें। उदाहरण के लिए अगर आप कंजूस हैं तो उदार लोगों के साथ रहें, ताकि उनके प्रभाव के कारण आपकी कंजूसी ख़त्म हो जाए। अगर आप निराशावादी हैं तो हँसमुख लोगों के आस-पास रहें। अगर आप एकाकी हैं, तो बहिर्मुखी लोगों से दोस्ती करें। कभी भी ऐसे लोगों से न जुड़ें, जिनमें आपके जैसे दोष हों- इससे सिर्फ़ आपके दोष ही मज़बूत होंगे। सिर्फ़ सकारात्मक गुणांे वाले लोगो के साथ जुड़ें। अगर आप जिंदगी में इस नियम पर चलेंगे, तो आपको दुनिया की किसी भी दवा से ज़्यादा फ़ायदा होगा।

जब मेरे पास अवसाद या भय से घिरे रोगी आते हैं तो मैं उन्हें सलाह देता हूँ कि आप अपने मित्रों के बीच ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त बिताएँ। उनमें से अधिकांश का यह जवाब होता है कि, ‘‘हमारा ऐसा कोई मित्र ही नहीं है जो हमारा साथ दे।’’ तो मैं जवाब देता हूँ कि, ‘‘आप नये मित्र बनाएँ, नहीं तो दवाएंॅ आपकी मित्र बन जाएँगी।’’

आदिमानव ज़हर से बुझे तीरों से जानवरों का शिकार किया करते थे और हम आलोचना और कटुता से भरे शब्दों से अपने मित्रों को नष्ट करते चले जाते हैं। क्या यह मित्रों का नष्ट होना आपके हित में है? क्या आपका अकेला रह जाना आपके लिये फायदेमंद है? आदिमानव तो शिकार करके अपना पेट भर लेते थे, लेकिन आप मित्रों को नष्ट करके स्वयं में एकांत और क्रोध का ज़हर भर लेते हैं और यह ज़हर किसी और को नहीं आपको ही नष्ट करता है।

क्या आप ऐसे किसी व्यक्ति को जानते हैं जिसके पास सच्चे मित्रों का टोटा है? क्या कहा, जानते हैं? बहुत अच्छा, तो आप उसके मित्र बन जाइये, वह भी आपका सच्चा मित्र बनने के लिये सबसे उपयुक्त इंसान है। हाँ, लेकिन यह याद रखें उससे ऐसा व्यवहार कतई न करें जो वह दूसरों से करता है।


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मानव सभ्यता के शुरुआती दौर से ही चलना एक अनिवार्य काम था। चलना , दौड़ना, पीछा करना या जान बचाकर भागना…यह सब पाषाण युग से लेकर कृषि युग तक चलते रहे। औद्योगिक क्रांति और फिर संचार क्रांति ने सबकुछ पलट दिया। दुनिया 360° घूम गई या पूरी तरह से बदल गई। हम सबने न चलने और कम से कम मेहनत करने को अपनी सफलता का पैमाना बना लिया।

कुर्सियों की दौड़ शुरू हुई और घरों में सोफा संस्कृति विकसित हो गई। इन सबने हमारे शरीर को आलसी बनाया और दुर्भाग्य से वह बीमार होता चला गया। हम विश्व इतिहास की सबसे कम चलने वाली पीढ़ी हैं और हमारी आने वाली पीढियां पता नहीं हमसे और कितना कम चलेगी।

हम मनुष्यों के लिए चलना एक बेहतरीन इलाज है। मैं केवल चक्कर के रोगियों को छोड़कर सभी को चलने की सलाह देता हूँ और उन्हें समझाकर चलने के लिए मना लेता हूँ। मेरी सलाह मानकर वे चलना शुरू करते हैं और फिर अपनी सेहत में एक सुखद और आश्चर्यजनक बदलाव वे महसूस करते हैं। सेहत को लेकर हर संस्कृति और हर धर्म बहुत सजग रहे हैं और चलने का सभी ने बहुत गुणगान किया है। पैगम्बरों और महापुरुषों ने भी चलकर खुद को स्वस्थ रखने का उपदेश अपने अनुयायियों को दिया है।

जब हम चलते हैं तो हमारे रक्त का प्रवाह बढ़ता है, कोशिकाओं में गति होने लगती हैं, वे प्रसन्न हो जाती हैं, उल्लास मनाते हुए निरोगी हो जाती हैं। हमारी मांसपेशियों में गति होती हैं, वे लचीली बन जाती हैं, उनमें रक्त प्रवाह बढ़ता है जो कि विषैले पदार्थों को उनमें से निकालकर ले जाता है। जोड़ स्वस्थ होते हैं। आनंद देने वाले रसायन सैरेटोनिन का स्राव बढ़ता है जिससे हम खुश रहने लगते हैं, हमारा तनाव दूर होता है, हम अवसाद से मुक्त होने लगते हैं। चलने या वर्कआउट करने से आंतों में गति (पेरिस्टालसिस मूवमेंट) होने लगती है जिससे हम कब्ज़, अपच, एसिडिटी जैसी समस्याओं से मुक्त होने लगते हैं। चलने से हम थकते हैं, और थकान नींद के लिए सबसे प्रभावी दवाई है इसलिए अनिंद्रा की समस्या भी इससे दूर होती है। जर्नल ऑफ क्लीनिकल स्लीप मेडिसिन में एक शोध प्रकाशित हुआ था जिसमें बताया गया था कि रोज़ाना वर्कऑउट करने या चलने वाले अनिद्रा के रोगियों में अनिद्रा की समस्या में 55% कमी हो जाती है।

चलने से कैलोरी बर्न होती है और हमारा अतिरिक्त वज़न कम होने लगता है।  चलना मोटापे से युद्ध के खिलाफ एक प्रभावी शस्त्र है। पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च कहती है कि जो महिलाएं केवल 40 मिनट रोज़ाना वर्कऑउट करती हैं तो वे साल भर में अपने वज़न का 10% कम कर लेती हैं। अगर आप 70 किलों की हैं तो एक साल में केवल 40 मिनट मेहनत करने से आप 63 किलो की हो जाएंगी।

चलने से दिमाग, किडनी और दिल स्वस्थ रहता है, हमारी नसों में बन चुके ब्लॉक हटते हैं, पथरी घुलती है। रोज़ाना चलने वालों में हृदय रोग का खतरा 27%, ब्रेन स्ट्रोक का खतरा 30% और अल्ज़ाइमर का खतरा 32% तक कम हो जाता है। रोज़ाना थोड़ी देर चलने या चहल कदमी करने से कैंसर की संभावना भी काफी कम हो जाती है, जैसे- कोलन कैंसर 53% तक कम, प्रोस्टेट कैंसर 35% तक कम, गर्भाशय कैंसर 23%तक कम और अन्य कैंसर होने का खतरा भी 52% तक कम हो जाता है।

पूरे विश्व की लगभग 90% आबादी व्यायाम नहीं करती। मजदूरों को छोड़ दिया जाए तो हम सभी इंसान बहुत घातक आराम का जीवन जी रहे हैं। हम चिकित्सकों के पास लगी हुई लाइन मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आधी हो जाए अगर लोग सिर्फ आधा घंटा रोज़ चलना शुरू कर दें तो। मैं अपने रोगियों से पूछता हूँ कि आप आखिरी बार 3 से 4 किलोमीटर कब चले या दौड़े थे तो अधिकांश सोचते ही रहते हैं लेकिन उन्हें याद नहीं आता कि उन्होंने यह सामान्य सा काम कब किया था। फिर मैं जवाब देता हूँ कि अगर आप यह काम रोज़ाना करते तो शायद आपको मेरी और मेरे द्वारा लिखी दवाईयों की ज़रूरत ही न पड़ती।

आपको चलने और काम करने के इतने फायदे देखकर लग रहा होगा कि आप भी आज से ही जिम जॉइन कर लेंगे या फिर कल से मॉर्निंग वॉक पर जाने लगेंगे लेकिन यह रूटीन या जिम जाना विश्व के 90% लोग छः महीने में ही छोड़कर उसी पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। तो आप क्या करें? मेरी राय है कि आप मेरी कुछ सलाह मानले ताकि आप जीवनभर चलना और मेहनत करना जारी रख सकते हैं, क्योंकि हमें स्वस्थ तो जीवनभर रहना है ना।

जानें चलने के लिए क्या करें

● चलने को अपने आदत बना लें या इसे अपनी मजबूरी बना लें। जैसे कार को ऑफिस से 1 किलोमीटर दूर पार्क करें, घर के सामान जैसे ग्रॉसरी, दूध, सब्ज़ियां लेने पैदल ही जाएं।

● लिफ्ट की जगह सीढ़ियों का इस्तेमाल करें।

● रोज़ाना पैदल चलने का लक्ष्य बनाए जैसे 10000 कदम या 3 किलोमीटर। हां, यह लक्ष्य आप 24 घण्टे में कभी भी पूरा कर सकते हैं।

● घर के मेहनत वाले काम खुद करें। जैसे- सफाई करना, कपड़े धोना, पोछा लगाना, बागबानी करना आदि।

●जिस व्यायाम को करने में आपको आनंद आये वह करें। बोरिंग व्यायाम से बचें।

● तैरना, डांसिंग, खेलना, बच्चों के साथ मस्ती करना या खेलना भी बहुत अच्छे और लाभदायक व्यायाम है।


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आज से कुछ साल पहले तक डेटॉल और लाइफ बॉय अपने साबुन के एड में दिखाते थे कि उनके प्रोडक्ट से 99% तक जर्म मर जाते हैं, सिर्फ लगाकर धोने भर से। अब इनके हैंडवॉश मार्केट में आये तो इन्होंने अपना नया एड बनाया और साबुन से घृणा करने के लिए बताया कि इसमें जर्म चिपके रह जाते हैं इसलिए इनसे बचने के लिए आपको बिना टच किये इस्तेमाल किये जाने वाला हैंडवॉश खरीद कर लाना चाहिए, विज्ञापन में दिखाया जाता है कि साबुन पर कीटाणु बिलबिला रहे हैं। अब सोचने वाली बात यह है कि पहले जिन साबुनों से 99% जर्म्स नष्ट हो रहे थे उनपर इतने सारे जर्म्स कैसे जीवित रह सकते हैं? या तो आप उस वक्त झूठ बोल रहे थे या फिर अब झूठ बोल रहे हैं। फ्लोर कलीनर के एड भी इसी तरह मूर्ख बना रहे हैं। हम भारतीयों को मूर्ख बनाकर लूटने में कोई भी कंपनी पीछे नही है ना स्वदेशी और ना विदेशी।

मोस्क्विटो रिपेलेंट के कुछ साल पहले के एड बताते थे कि उनके प्रयोग करने से सारे मच्छर भाग जाएंगे या मर जाएंगे। लेकिन अब वे कह रहे हैं कि हम चार गुना ज्यादा असरदार प्रोडक्ट लाये हैं आपके लिए। अरे भाई जब आपके प्रोडक्ट से सारे मच्छर भाग ही रहे थे तो फिर आपको यह चार गुना ज्यादा असरदार प्रोडक्ट लाने की क्या ज़रूरत आन पड़ी? क्या पहले वाले से सब नहीं भाग रहे थे और अगर नहीं भाग रहे थे तो आपने पहले क्यों नहीं बताया। चलो नहीं बताया तो अब बतादो कि पहले वाला असरदार नहीं था और वह एड केवल आपको मूर्ख बनाने के लिए था प्रिय ग्राहकों। आल आउट, मार्टिन, गुड नाईट, मैक्सओ सभी हमें बरसों से इसी तरह मूर्ख बनाते हुए आ रहे हैं। दुर्भाग्य से हमारा तंत्र एक खास बात इनके बारे में नहीं बताता कि ये रिपेलेंट कितने घातक हैं। कैंसर कारक और लकवाग्रस्त कर देने वाले हैं ये सब के सब। क्या इसपर यह चेतावनी अंकित नहीं करवानी चाहिए हमारी सरकार को? अवश्य करवाना चाहिए यदि वह हमारे लिए फिक्रमंद है तो। मैंने ऐसे कई मासूम लोगों को देखा है जो बागीचों में जाकर शुद्ध हवा में दस मिनट प्रणायाम करते हैं और रातभर इन मोस्क्विटो रिपेलेंट की ज़हरीली हवा में सांस लेते हैं। बच्चों को एड में दिखाकर हमें इमोशनल ब्लैकमेल किया जाता है और हम इन ज़हरीले प्रोडक्ट को खरीद कर उन्हीं की सेहत को बर्बाद कर देते हैं। हम हमारे बच्चों को राहुल द्रविड़ का एड देखकर बीड़ी सिगरेट के धुएं से तो बचाते हैं लेकिन इन ज़हरीले धुओं के हवाले कर देते हैं। शायद ही कभी कोई खिलाड़ी या कोई मंत्रालय इन ज़हरीले धुओं से बचने के लिए कभी एड बनाएगा। हम इंसान इंसेक्ट प्रजाति के जीवों से कभी नहीं जीत पाएंगे। क्योंकि यह बहुत ही विकसित प्रजाति है। कीटों को मारने के लिए कीटनाशक दवाओं का फसलों पर अथाह प्रयोग मनुष्य के जीवन के लिए संकट बन चुका है लेकिन कीटों की संख्या में कोई कमी नहीं आई। क्यों? क्योंकि वे हमसे कभी नहीं हारेंगे।

टूथपेस्ट के एड में पहले कोयला, नीम, बबूल, निम्बू और नमक का मजाक उड़ाया और अब पूछ रहे हैं कि क्या आपके टूथपेस्ट में नमक है / नींबू है / नीम है? अरे भाई आपने जब इन्हें निकलवा दिया था तो होंगे कहां से! एक बात पर ध्यान दें कि कोई भी जानवर टूथपेस्ट नहीं करता लेकिन उनके दांत हम इंसानों से स्वस्थ, सफेद और मजबूत है। कोलगेट, सेंसोडाइन, पेप्सोडेंट आदि सभी के सभी डेंटिस्ट के सुझाए नंबर वन है लेकिन मैंने एक भी डेंटिस्ट के पर्चे पर इन्हें प्रेस्क्राइब करते हुए नहीं देखा। अब पता नहीं ये कौनसे डेंटिस्ट हैं जो इन्हें ही दिखते हैं हम आम लोगों को नहीं।

आजकल वाटर प्यूरिफायर के नए एड में दिखाया जा रहा है कि यह ज़रूरी मिनरल्स बचाए रखता है। अच्छा तो पहले आपने क्यों नहीं बताया था कि इससे ज़रूरी मिनरल्स नष्ट होते हैं। आपने कैल्शियम और मैग्नीशियम जैसे ज़रूरी मिनरल्स को नष्ट करके अनगिनत जोड़ों के दर्द और डिप्रेशन के रोगी बना दिये। इसका जिम्मेदार कौन है?

अंडरवेअर से लड़कियों का झुंड लड़के की तरफ दौड़ पड़ता है, परफ्यूम से लड़कियां मदहोश हो जाती हैं, ये सब पुरुषों के अवचेतन को खुरचकर मूर्ख बनाने वाले एड हैं। कुछ ही दिनों तक लगाने से गोरीे और सुंदर बनादेने का वादा करते क्रीम युवतियों के अवचेतन को खुरचकर मूर्ख बनाते हैं… लेकिन बन दोनों ही रहे हैं। क्या? मूर्ख और क्या।

एक डिब्बाबंद प्रोडक्ट से बच्चे को शक्तिशाली बनाने का वादा किया जाता है। क्यों? क्योंकि माँ बाप ऐसा ही सपना देखते हैं कि उनका बच्चा सबसे शक्तिशाली हो जाए। लेकिन सम्मानीय अभिभावकों अगर डब्बों में शक्ति और स्वास्थ्य मिलता तो हमारे देश के सबसे शक्तिशाली बच्चे मुकेश अम्बानी जी के दोनों बच्चे होते। थोड़ी अक़्ल लगाओ और वजह पता करो कि यह डिब्बों पर डिब्बा चट कर जाने वाले आधुनिक बच्चे विश्व इतिहास के सबसे कमज़ोर बच्चे क्यों हैं?

पुनःश्च:- एकबार एक नाटी दम्पत्ति ने मुझसे पूछा कि क्या हम टेलिविजन पर आने वाले टेलीमार्केटिंग का एक प्रोडक्ट खरीद लें, हमारे बेटे की हाइट बढ़ाने के लिए। क्योंकि उसमें एक नाटी दंपत्ति अपने बेटे को बचपन से वह प्रोडक्ट देती है और उनका बेटा चमत्कारी रूप से लंबा हो जाता है।

मैंने उनसे पुछा कि कितने साल बड़ा बच्चा था वह और कबसे उन्होंने खिलाना शुरू किया था उसे वह प्रोडक्ट? उन्होंने बताया कि 17 से 18 साल का होगा उनका बेटा और उन्होंने 5 साल की उम्र से ही खिलाना शुरू कर दिया था। मैंने उनसे कहा कि क्या आपने आज से 12 साल पहले उस कंपनी के प्रोडक्ट का नाम सुना था? एक से दो साल पुरानी कंपनी 12 साल पहले कैसे कुछ बेच सकती है? उन्हें मेरी बात समझ आगई और उन्होंने वह बेअसर और बहुत महंगी दवाई खरीदने का विचार त्याग दिया।

आप भी थोड़ासा दिमाग लगाएंगे तो इनके चंगुल में कभी नहीं फसेंगे। वे हमें मूर्ख बनाने के लिए एड बनाते हैं क्योंकि उन्हें यक़ीन है कि हमें मूर्ख बनाया जा सकता है। क्या आप भी उनका सॉफ्ट टॉरगेट हैं… बहुत सॉफ्ट… फूल सॉफ्ट???


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‘‘यदि हम ख़ुद को या दूसरों को ख़ुश करने के लिए कुछ बनाते हैं, तो समझिये कि रेत पर किला बना रहे हैं, यदि हम ईश्वर के प्रेम की ख़ातिर बना रहे हैं तो चट्टान पर बना रहे हैं।’’ – ओस्वाल्ड चैम्बर्स

लोगों के दुःखी रहने का सबसे बड़ा कारण लोगों से आस लगाना है। पत्नी इसलिए दुःखी है कि वह दिनभर परिवार का ध्यान रखती है, लेकिन पति की दृष्टि में उसकी कोई कीमत नहीं है। पिता के दुःख का कारण यह है कि संतान को उनके बुढ़ापे का कोई ख़्याल नहीं है। मालिक को दुःख है कि कर्मचारी उसका एहसान नहीं मानते। ऐसे ही कई लोग हैं जो एक-दूसरे से उम्मीद या आस लगाए बैठे हैं और दुःखी हैं कि वह पूरी नहीं होती। ये उम्मीदें अगर हमें दुःखी करती हैं तो क्या किया जाए? इसके बारे में एक विद्वान का सिद्धांत यहाँ उल्लेखनीय है, ‘‘सुकून पाने का पहला सिद्धांत है कि हम अच्छे काम करें और लोगों से उसके बदले कोई उम्मीद न लगाएँ, उम्मीद सिर्फ़ और सिर्फ़ ईश्वर से ही लगाई जाए। अगर बदले में लोग आपसे अच्छा सुलूक कर लें तो इसे ईश्वर का वरदान समझें कि उसने आपके अच्छे कर्मों का फल धरती पर भी दे दिया।’’

गौतम बुद्ध के मुंह पर एक व्यक्ति ने थूक दिया, उन्होंने थूक को अपनी चादर से साफ करते हुए कहा कि” क्या तुम्हें और भी कुछ कहना है?” वह व्यक्ति स्तब्ध रह गया और बुद्ध के पैरों पर गिर कर बोला कि “मुझे क्षमा कर दी जिये, और मुझे अपने प्रेम से वंचित न करियेगा।” बुद्ध बोले कि “मैं तुमसे पहले इसलिए प्रेम थोड़े ही करता था कि तुम मुझ पर थूकते नहीं थे, मेरा प्रेम तुम्हारे थूकने पर निर्भर नहीं है वह तो इन सब से परे है, वह तो बिना किसी उम्मीद के है न अच्छी न बुरी।”

यदि आप भी पुरज़ोर सुकून और एक सुख की झील अपने आँगन में चाहते हैं, तो लोगों से उम्मीद बाँधना छोड़कर केवल एक ईश्वर से उम्मीद लगाएँ। विश्वास करें, यह सिद्धांत आपके जीवन में पुरज़ोर सुकून भर देगा, आपका ब्लड प्रेशर सामान्य रखेगा, आपकी अनिद्रा की समस्या को समाप्त कर देगा, शुगर, कॉलेस्ट्रॉल, यूरिया जैसे घातक तत्वों को शरीर में बढ़ने नहीं देगा, अल्सर, जोड़ों का दर्द और हृदय रोग को दूर रखेगा। यह सुकून यकीनन आपको दुनिया की किसी भी दवाओं या आराम से प्राप्त नहीं हो सकता। इसके बारे में सही व्याख्या वही कर सकता है जिसने वास्तव में ऐसा करके अपने हृदय में एक दिव्य अमृत भरा हो। हाँ, शायद आपने भी ऐसा कभी किया हो या प्रतिदिन ही ऐसा करते हों और यदि नहीं करते, तो आज से ही अपने कार्य ईश्वर को समर्पित कर दें। हाँ, इसका फल आप ही को तो मिलेगा।


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ज़िन्दगी में कोई भी कभी भी ब्लैकमेल हो सकता है। यह मज़ाक में किया जा सकता है या फिर क्रिमिनल स्तर पर। यह किसी जान पहचान वाले द्वारा किया जा सकता है या फिर किसी शातिर बदमाश के द्वारा। नेता, शातिर बदमाश, पत्रकार, पुलिस वाला, वकील, आपका ही कोई कर्मचारी, भूतपूर्व या वर्तमान प्रेमी या प्रेमिका…कोई भी ब्लैकमेल कर सकता है। ब्लैकमेल के लिए कोई वीडियो, कोई मैसेज, कोई ऑडियो, कोई फ़ोटो या कोई पेपर्स हो सकते हैं। अक्सर लोग इसमें उलझ जाते हैं और आत्महत्या या हत्या करने के विकल्प को चुन लेते हैं। आत्महत्या या हत्या करने के बाद तो सारे विकल्प ही खत्म हो जाते हैं और फिर कोई कुछ नहीं कर सकता। आजकल आये दिन हम खबर पढ़ते हैं कि एक व्यवसायी को किसी मॉडल द्वारा ब्लैकमेल किया गया और उसने आत्महत्या करली, या किसी महिला को ऑफिस के ही एक कुलीग ने ब्लैकमेल किया और उसने भी मरना चुना। कई लोग इस जाल से निकलने के लिए पैसा लूटा देते हैं तो कई अपनी जान। ब्लैकमेलिंग अक़्सर प्रतिष्ठित व्यक्ति या किसी महिला के खिलाफ की जाती है। यह सच्चे या झूठे तथ्यों पर आधारित हो सकती है। ब्लैकमेल करने वाला अपनी शर्त पूरी होने पर ब्लैकमेल करना बंद भी कर सकता है और इसे जारी भी रख सकता है। ब्लैकमेल करने वाला आपसे रुपया, संपत्ति, कोई सपोर्ट या शारिरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर कर सकता है।

ब्लैकमेल होने वाला अपने आप को नरक की यातना झेलता हुआ पाता है जहाँ उसे दिन रात तिल तिल कर मारा जाता है। उसकी नींद उड़ जाती है और वह अपने अंधकारमय भविष्य को सोच सोचकर मरने या मारने पर उतारू हो जाता है। कई ब्लैकमेल करने वालों को मौत के घाट लोग उतार देते हैं और खुद को जेल में उम्र भर के लिए कैद करवा लेते हैं।

ब्लैकमेल जब किसी को किया जाता है तो उसे लगता है कि यह क्या हो गया? क्या कहानी किस्सों और फिल्मों के अलावा यह हकीकत में भी होता है और होता भी है तो मेरे साथ ही क्यों? यह होते ही वह हल ढूंढने की बजाय चिंता में डूब जाता है, क्योंकि इसका हल निकालना किसी ने बताया ही नहीं उस बेचारे को। यह वह सबक है जो हमें हमारे स्कूल कॉलेज और माँ बाप भी नहीं सिखाते।

लेकिन अगर शांति से इसके हल के बारे में सोचा जाए तो बहुत आसानी से इस अंधेरे समंदर से निकला जा सकता है। सबसे पहले तो आप यह तय करें कि ब्लैकमेलर द्वारा जिस मुद्दे पर आपको ब्लैकमेल किया जा रहा है उसका सबसे बुरा परिणाम क्या हो सकता है। और उस बुरे परिणाम को स्वीकार कर लीजिए। चीनी दर्शन के अनुसार “मन की सच्ची शांति बुरे से बुरे को स्वीकार करने से आती है।” क्योंकि ऐसा करके हम नकारात्मक ऊर्जा को मुक्त करके सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करने लगते हैं। जब हम बुरे से बुरे को स्वीकार कर लेते हैं तो हमारा मन शांत हो जाता है क्योंकि फिर हमारे पास खोने को कुछ नहीं बचता। जब मन शांत हो जाए तो अब यह सोचे कि इस बुरे से बुरे को कैसे टाला जाए। उसके लिए आप अपने दोस्तों, परिवार के सदस्यों या फिर कानून की मदद ले सकते हैं। हाँ, कानून इसमें मदद करता है और यदि ब्लैकमेल करने वाले के पास की जानकारी को आप गोपनीय रखना चाहे (जब वह गिरफ्तार हो जाए) तो भी रखी जा सकती है, यदि आपने कोई कानूनन अपराध नहीं किया है तो।

कई बार हमारे पास बेहतरीन और असरदार मददगार होते हैं लेकिन हम उनकी मदद लेने में हिचकते हैं और खुद को मुसीबत में डाल लेते हैं। अकेले अकेले ना घुटे। और याद रखें मदद मांगोगे तो ही मदद मिलेगी। आपके पास एक अद्भुत दिमाग है जो ईश्वर ने आपको समस्याओं से निकलने के लिए ही दिया है तो आप उसका उपयोग कीजिये।

अंत में याद रखें कि जो आपको ब्लैकमेल कर रहा है वह कानूनन एक अपराध कर रहा है और अपराधी के खिलाफ मदद लेने के लिए आपके पास बहुत सी संस्थाएँ और लोग हैं… उनकी मदद लीजिए। न कि अपनी जान दीजिये और न किसी की जान लेकर हत्यारे बनिये। सोचिये,समझिये, फैसला लीजिए और प्रक्रिया शुरू कर दीजिए ब्लैकमेलरों को सबक सिखाने की।
सत्यमेव जयते।


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हमारा दिमाग जिस बात पर भरोसा करना चाहता है उसे पुख्ता करने के लिए वह सुबूत ढूंढता है, वह उसके लिए सकारात्मक तथ्यों को खोजना चाहता है जो उसके विश्वास को और मजबूती दे। जब उसे सुबूत मिलते जाते हैं तो उसका भरोसा पक्का होता चला जाता है चाहे वे सुबूत सच्चे हो या झूठे। यदि उन सुबूतों में थोड़ा सा भावना या आस्था का पुट भी हो तो फिर हमारा दिमाग कुछ भी सुनने को तैयार ही नही होगा वह अपने भरोसे के आगे सभी को झुठला देगा …चाहे आप उसे अपेक्षाकृत कितना ही बड़ा अन्य सच क्यों न दिखा दे। यह मनोविज्ञान एक अच्छा नेता और एक बाबा बहुत अच्छे से जानता है। इसी के दम पर वे अपने समर्थकों या भक्तों का जमघट खड़ा कर लेते हैं।

हमारा यही मनोविज्ञान हमें #फेक_न्यूज़ पर भरोसा करवाता है और नफरत की राजनीति को आसान बना देता है…। हम राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के इसीलिए भक्त कहलाने लगे हैं क्योंकि हम उन पर अंधा भरोसा जो करने लगे हैं। इतना अंधा की हम सत्य को देखना ही नहीं चाहते जबकि हमारे पास उसे देखने की शक्ति मौजूद है।

हम किसी मज़हब के लोगों से नफरत करना चाहते हैं और उस मज़हब के संकेत धारण किये (जैसे मुसलमान की दाढ़ी टोपी या हिन्दू का भगवा पहनावा या कोई बेंड) किसी व्यक्ति का एक नफरत या मारपीट या गालियां देता कोई वीडियो हमारे व्हाट्सएप या फेसबुक पर आते ही हमारा मस्तिष्क उसे सुबूत मानकर उस पर भरोसा कर लेता है… और हमारी नफ़रतें एक खास वर्ग विशेष के लोगों के प्रति बढ़ने लगती है…हर झूठी सच्ची खबर, तस्वीर या वीडियो के साथ।

हमारा दिमाग भरोसा करना चाहता है क्योंकि उसका यही एकमात्र कर्म है अब यह हमें चाहिए कि हम उसे किस पर उसे भरोसा करवाना चाहते हैं- सत्य पर या झूठ पर?

अफवाहों से खुद को सुरक्षित रखें क्योंकि यह अब एक कलयुगी सत्य बन चुकी है… जानलेवा झूठा सत्य।


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एक मजदूर एक बड़ा सा पत्थर तोड़ने के लिए उसपर हथोड़े से चोट करता है… एक, दो, तीन…और पचासवीं चोट में वह पत्थर टूट जाता है।

अब आप बताइये कि इस पूरी प्रक्रिया में किस नंबर की चोट सबसे महत्वपूर्ण थी जिससे वह चट्टान टूटी- पहली, दूसरी, दसवीं या फिर पचासवीं?

जी हां, इस पूरी प्रकिया में सभी चोटों का बराबर महत्व है। पहली का भी और पचासवीं का भी। यदि पहली चोट न लगती तो पचासवीं को कामयाबी नही मिलती। बीमारियों के साथ भी ऐसा ही है, हम पहले दिन दवाई खाते हैं, दूसरे दिन, तीसरे दिन…और फिर पचासवें दिन हमारी बीमारी खत्म हो जाती है। अब आप बताइए कि इनमें सबसे महत्वपूर्ण डोज़ कौनसा था- पहला,दूसरा, दसवाँ या पचासवाँ? अगर आप पहला डोज़ लोगे ही नही तो पचासवें का नंबर ही नही आएगा और आपका रोग ठीक नही होगा।

इसलिए रोगी रोग को ठीक करने के लिए थोड़ा सब्र रखे। प्रिय रोगियों पहले ही दिन जटिल रोग ठीक नही होते हैं। क्या आप 120 की स्पीड में दौड़ रहे ट्रक को एकदम ब्रेक मारकर रोक सकते हैं? नहीं, ना क्योंकि इससे एक्सीडेंट हो जाएगा। यदि जीवन मरण का प्रश्न नहीं होगा तो आप ऐसा कभी नहीं करेंगे। इसी तरह रोगों का भी है उन्हें एकदम दबाना या रोकने की प्रवृत्ति अप्राकृतिक है। रोग अपनी जटिलताओं के साथ आते हैं और शरीर से जाने में वक़्त लेते हैं, थोड़ा या ज्यादा। आचार्य चरक कहते हैं कि श्रेष्ठतम चिकित्सा वह है जिससे रोग जड़ से नष्ट हो और उस चिकित्सा से कोई नया रोग न उत्पन्न हो।

जटिल रोग को ठीक करने के लिए आयुर्वेद, होमियोपैथी, यूनानी या चाइनीज़ चिकित्सा पद्धतियों को थोड़ा समय दें और फिर रोग से मुक्त हो जाएं सदा के लिए। चिकित्सा चुनने का ज्ञान हर स्वस्थ और रोगी व्यक्ति को पता होना ही चाहिए, हमेशा स्वस्थ रहने के लिए।


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