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CLASSIC LIST

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आजसे कुछ साल पीछे जाएं या एक दो पीढ़ी पीछे के लोगों से ही पूछा जाए तो उनके लिए पिता अनुशासन, भय और सम्मान का मिला-जुला व्यक्तित्व था या है। लेकिन अब पिता का व्यवहार बदला है और प्रतिक्रिया स्वरूप बच्चों का व्यवहार भी उनके प्रति बदल गया है। अब पिता पहले से ज्यादा अपना प्रेम प्रदर्शित करने लगे हैं। मैं अपने क्लीनिक पर आए पिताओं को देखता हूँ तो वे पहले के पिताओं से भिन्न हैं। थोड़े बुज़ुर्ग पिता अपने बच्चों से एक दूरी बनाकर रखते थे, उन्हें प्रेम से गोद में उठाकर नहीं लाते थे, उनकी समस्याओं को सुनाते हुए भावुक नहीं होते थे और न ही उनकी जटिल समस्या होने पर रोने लगते थे …लेकिन अब यह बदल गया है।

आदिमविकास के दौरान पिता का काम परिवार की सुरक्षा और भोजन की व्यवस्था करना था और माँ का काम भोजन को पकाना और बच्चों की परवरिश करना। बच्चों की देखभाल और प्रेम माँ का काम था। यह दोनों ही अपने काम अच्छी तरह निभा रहे थे। यह विकासक्रम लाखों सालों तक चला लेकिन औद्योगिक क्रांति और फिर संचार क्रांति ने सब कुछ बदल दिया। अब पिता के साथ साथ माँ भी कमाने लगी है और पुरुषों के एकक्षत्र प्रभाव वाले क्षेत्रों में महिलाओं ने घुसपैठ की हैं। अब वे भी अच्छी खासी तनख्वाह पा रही हैं कई पत्नियों की तनख्वाह तो पतियों से भी ज्यादा है। इसलिए घर का माहौल बदला है इस बदलाव को कई पुरुषों ने स्वीकार करके स्वयं को बदल दिया है और जो नहीं बदल रहे हैं वे बच्चों की निगाह में विलेन बनते जा रहे हैं, एक ऐसा पिता जिसे बच्चों से प्रेम नहीं है और जो बहुत खड़ूस है, उनके मित्रों के पिताओं से अलग।

पुरुषों के भावनात्मक बदलाव की वजह एक यह भी है कि उनमें अपने पूर्वजों के मुक़ाबले टेस्टोस्टेरोन (पुरूष और पौरुष हार्मोन) का स्तर घटा है और संतान प्रेम के लिए जिम्मेदार ऑक्सिटोसिन हार्मोन (वात्सल्य हॉर्मोन) का स्तर बढ़ा है।

विकासक्रम के चलते अब भी संतान अपने दबंग पिता को पसंद करती हैं जिसका समाज में रुतबा, सम्मान और शान हो लेकिन उन्हें घर के हिटलर अब पसंद नहीं है। वे पिता में अब माँ के कुछ गुण देखना चाहते हैं। एक प्रेम करने वाला मज़बूत पिता। अच्छा किस पिता को संतान ज्यादा प्रेम करेंगी- सुपर हिट फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के सख्त बाबूजी (अमरीश पुरी,सिमरन के पिता) या दोस्तों की तरह प्रेम करने वाले पा (अनुपम खेर, राज के पिता) को।

प्रिय और सम्मानीय पुरुषों क्या आप चाहते हैं कि आपकी संतान आपसे असीम प्रेम करें… तो थोड़ा सा माँ बन जाइये।


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आत्महत्या को अंग्रेजी में सुसाइड कहा जाता है जो कि लैटिन शब्द suicidium से बना है जिसका अर्थ “स्वयं को मारना” है। WHO के अनुसार विश्व में लगभग 8,00,000 से 10,00,000 लोग हर वर्ष आत्महत्या करते हैं, जिस कारण से यह दुनिया का दसवे नंबर का मानव मृत्यु का कारण है और 15 से 30 वर्ष के युवाओं में यह दूसरा सबसे बड़ा मृत्यु का कारण। इससे मरने वाले युवाओं की संख्या दुर्घटनाओं में मरने वालों से भी अधिक है। पुरुषों से महिलाओं में इसकी दर अधिक है। विश्व की कुल आत्महत्याओं में हमारे देश का योगदान लगभग18% है। अनुमानतः हर 10 से 20 मिलियन लोग आत्महत्या के प्रयास करते हैं। युवाओं तथा महिलाओं में आत्महत्या के प्रयास अधिक आम हैं।

आत्महत्या केवल मनुष्यों में ही नहीं पाई जाती, आत्महत्या संबंधी व्यवहार को साल्मोनेला में भी देखा गया है जो कि प्रतिस्पर्धी बैक्टीरिया से पार पाने के लिए उनके विरुद्ध एक प्रतिरोधी प्रणाली प्रतिक्रिया है। आत्महत्या संबंधी रक्षा को ब्राजील में पायी जाने वाली “फोरेलियस पूसिलस” कर्मचारी चीटियों में भी देखा गया है जहाँ पर चीटियों का एक छोटा समूह घोसले की सुरक्षा के लिए हर शाम बाहर से उसे बंद करके निकल जाता है। जब उनके समूह को को खतरा होता है तो वे अपने में विस्फोट कर देते हैं जिससे उनके शरीर से निकली विशेष गंध से उनके साथी बिखर कर सुरक्षित जगह पहुंच जाते हैं। दीमक की कुछ प्रजातियों में ऐसे सैनिक होते हैं जो फट जाते हैं और उनके दुश्मन उनके चिपचिपे पदार्थ में फंस जाते हैं। यह जीवों के आत्मघाती दस्ते हैं।

प्राचीन काल से ही आत्महत्या को मनुष्य समाज ने निंदनीय कर्म बताया है अब्राहिमी मज़हबों (यहूदी, ईसाई और इस्लाम) ने इसे न माफ किया जाने वाला गुनाह बताया है और ऐसा करने वाले व्यक्ति को खुदा बिना सवाल जवाब के ही हमेशा हमेशा के लिए जहन्नुम में डाल देगा। इस्लाम में पैगंबर मुहम्मद सल्ल. ने आत्महत्या न करने के लिए अपने अनुयायियों को बहुत सी कठोर सिख दी हैं जिसके चलते मुस्लिमों में आत्महत्या की दर सबसे कम है। वैसे भी देखा गया है कि आत्महत्या करने में धार्मिक व्यक्तियों का अनुपात कम होता है। इसकी वजह धर्म से मिलने वाली शांति और आशा है।

इतिहास में देखें तो प्राचीन एथेंस में जो व्यक्ति राज्य की अनुमति के बिना आत्महत्या करता था तो उसे सामान्य रूप से दफन होने का अधिकार नहीं था। प्राचीन ग्रीस और रोम में आत्महत्या को युद्ध में हार के समय मौत का स्वीकार्य तरीका था। प्राचीन रोम में, आरंभिक रूप से आत्महत्या को अनुमत माना जाता था, लेकिन बाद में इसे इसकी आर्थिक लागत के कारण राज्य के विरुद्ध अपराध माना जाने लगा।1670 में फ्रांस के लुई XIV द्वारा एक आपराधिक राजाज्ञा जारी की गयी थी, जिसमें अधिक कठोर दंड का प्रावधान थाः मृत व्यक्ति के शरीर को चेहरा जमीन की ओर रखते हुए सड़क पर घसीटा जाता था और फिर उसे लटका दिया जाता था, जिसके बाद कूड़े के ढ़ेर पर डाल दिया जाता था। ऐतिहासिक रूप से इसाई चर्च के वे लोग जो आत्महत्या का प्रयास करते थे समाज से बहिष्कृत कर दिए जाते थे और वे जो मर जाते थे उनको निर्धारित कब्रिस्तान से बाहर दफनाया जाता था। 19 वीं शताब्दी के अंत में ग्रेट ब्रिटेन में आत्महत्या के प्रयास को हत्या के प्रयास के तुल्य माना जाता था और इसकी सजा फाँसी तक थी। 19 वीं शताब्दी में यूरोप में आत्महत्या के कृत्य को पाप से किए जाने वाले काम से हटाकर पागलपन से प्रेरित कृत्य कर दिया गया।

कारण क्या हैं आत्महत्या करने के-

●घोर तनाव
●घोर निराशा
●असफलता
●घोर अपमान
●डर
●आर्थिक नुकसान या कर्ज़
●सामाजिक प्रतिष्ठा नष्ट होने का भय
●कोई लाइलाज बीमारी जैसे एड्स, कैंसर
●लंबी और दर्दनाक लंबी बीमारी
●दवाओं के साइड इफेक्ट्स जैसे बीटा ब्लॉकर्स तथा स्टेरॉयड्स
●नशा आदि

आत्महत्या से बचाव कैसे हो-

●सबसे पहले तो आत्महत्या करने के साधन उपलब्ध न हो। यदि आत्महत्या के लिए ज़हर, बंदूक, रस्सी तुरंत उपलब्ध न हो तो गुस्सा और निराशा के बादल समय के साथ हटते ही आत्महत्या का विचार बदल जाता है। एक बार यदि कोई यह प्रयास कर चुका है तो उसके दोबार आत्महत्या करने की संभावना ज्यादा है इसलिए उन लोगों से घातक वस्तुएं दूर रखें।
● धर्म की शरण ले, क्योंकि ईश्वर पर आस्था आपको आशा और शांति देगी।
● तनाव और निराशा को दूर करने की प्लानिंग बनाइये। इसके लिए किसी प्रोफेशनल से मिलिए या दोस्तों और रिश्तेदारों की सलाह लीजिए।
● सब्र से काम लीजिए, क्योंकि अधिकांश समस्याएं समय के साथ खत्म हो जाती हैं, चाहे वे कितनी ही बड़ी क्यों न हो।
● आत्महत्या के विचार आ रहे हो और आप कोई दवाई लेते हैं तो अपने डॉक्टर से ज़रूर बात करें ताकि वह उन दवाओं की जगह कोई और दवाई आपको दे।
● बिल्कुल मत सोचिये की आपकी आत्मा को सब पता चलेगा कि लोग कितने दुःखी हैं आपके जाने से। यह सब फिल्मी बातें हैं जिनमें कोई सच्चाई नहीं। पुनर्जन्म को भी भूल जाइए कि आप नया जन्म ले लेंगे और फिर उसमें सब शांति ही शांति होगी। याद रखें आपको बस जीवन एक ही बार मिला है अब दूसरा कोई मौका नहीं।
● अकेले न रहें। लंबे समय का एकांत घातक है हम मनुष्यों के लिए क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।
● क्षमा और दया कीजिए लोगों पर।
● दूसरों को दोष देना और दूसरों से लंबी लंबी उम्मीदें बांधना- दोनों घातक है।
● डर से मत डरिये। आपका डर आपकी हिम्मत और आत्मविश्वास से नष्ट हो जाएगा आवश्यकता है तो सिर्फ एक अच्छी प्लानिंग की।

अंत में यह शाश्वत नियम याद रखें- हर मुश्किल के बाद आसानी है, हर अंधेरी रात के बाद सवेरा है और हर दुःख के बाद आनंद है…हाँ, यह नियम आपके लिए भी सत्य है दुनिया के बाकि लोगों की तरह।


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शायद वह पिछले साल का सावन का महीना था जब मेरे एक रोगी जो कि भोपाल से दूर एक गांव के भूतपूर्व बुज़ुर्ग सरपंच थे। वे मुझसे अपनी कुछ समस्या के समाधान के लिए परामर्श लेने आए थे। उन्होंने बातों ही बातों में मुझे बताया था कि वह कैसे सरपंच के चुनाव में एक अमीर उम्मीदवार के सामने बिना पैसे बांटे जीते थे। उन्होंने बताया कि हमने गांव के कुछ परिवार को चिन्हित किया जो हमें वोट देने की बजाय हमारे विरोधी को वोट देने का मन बना रहे थे, लेकिन वे उसके कट्टर समर्थक नहीं थे। फिर रात में एक अंजान व्यक्ति को उस विरोधी का कार्यकता बनाकर हमने उन घरों में भेजा, हाथ में 50 हज़ार रुपये की गड्डी लेकर। दरवाजा खटखटाया और मुखिया से बात की कि कितने वोटर्स हैं आपके घर में? उसने जवाब दिया कि 10 हैं। हमारा आदमी उसके बताए अनुसार एक वोटर के 1000 के हिसाब से 10000 उसे गिनकर देने वाला होता था कि हमारे द्वारा पहले से तय एक आदमी दूर से आवाज़ लगाता था कि इसे मत दो, भाई साहब ( प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार का नाम लेकर) ने मना किया है कि यह भरोसेमंद आदमी नहीं है। अब रातभर वे लोग अपने पैसे जाने और खुद को गद्दार कहे जाने के गुस्से में सुलगते रहे और अपना वोट उसे न देने का मन बना लिया, और यह बहुत कारगार उपाय था, क्योंकि मनुष्य का मनोविज्ञान ही ऐसा है। हमने ऐसा किया रातभर और सुबह हमारे पास हमारे 50 हज़ार भी थे और विरोधी को जाने वाले लगभग 100 से 150 वोट भी हमारी झोली में आगए थे।

उन सरपंच साहब ने मुझे यह भी बताया था कि, ” ज़िन्दगी में हमेशा याद रखो कि जैसे मछली के दाने में उसकी पसंद का दाना ही डाला जाता है अपनी पसंद का गुलाब जामुन नहीं, बंदर को पकड़ने के लिये मूंगफली, भालू के लिए शहद और शेर के लिए मेमना…। वैसे ही लोगों को खरीदने के लिए भी अलग अलग चारा डालना पड़ता है- पैसा, डर, पद और सेक्स। यह इंसानों को फांसने के चारें हैं डॉक्टर साहब। जिसे जैसा चारा चाहिए वह पता करो, उनके सामने फेंको और राज करने लगो इन इंसानों पर जो कि किसी को अपना राजा बनाने के लिए हमेशा उतावले रहते हैं… मूर्ख और लालची इंसान।”

इस घटना से एक बात पता चलती है कि जैसे हम होते हैं वैसे ही हम अपने नेता चुनते हैं, क्योंकि आखिरकार हम हक़ीक़त में अपने प्रतिनिधि ही तो भेजते हैं। हम बिक जाते हैं इसलिए आगे जाकर हमारे नेता भी बिक जाते हैं। हम भ्रष्ट हैं इसलिए हमारे नेता भी भ्रष्ट हैं। चाहे हमें लगता हो कि हम भ्रष्ट नहीं है लेकिन भ्रष्टाचार का मूल हम ही हैं… देश को खा जाने वाली दीमक। अब बिकना छोड़िये, बिकने वालों को चुनना छोड़िये, और इस देश को वैसा बनाने में सहयोग कीजिए जैसा बनने का यह हक़दार है- महान और खुशहाल देश, दुनिया का सबसे अच्छा देश।


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दिल हमारे शरीर का एक सबसे महत्वपूर्ण अंग है। इसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। आजकल कई रोग आम होते जा रहे हैं कुछ तुरंत जान ले लेते हैं और कुछ धीरे धीरे जान लेते हैं। तुरंत जान लेने में दो बीमारियों का नाम सबसे ऊपर है- हार्ट अटैक और दूसरा ब्रेन स्ट्रोक। हार्ट अटैक के लक्षणों में हैं- सीने में दर्द, दर्द का उल्टे हाथ, पीठ और जबड़े तक जाना, घबराहट, सांस लेने में परेशानी, तेज़ ठंडा पसीना आना।

जब हमारे सामने कोई व्यक्ति अचानक हार्ट अटैक से मर जाता है तो सुरक्षा की दृष्टि से हमारा दिमाग उस बात को अपने अंदर समाहित कर लेता है कि यदि हमें यह समस्या आए तो हम अलर्ट रहे और जीवनरक्षक उपाय करें। यह एक सुरक्षात्मक प्रक्रिया है जो हमें जीवित रखने के लिए हमारा दिमाग आदि काल से अपनाता हुआ आ रहा है। अर्थात जानलेवा वस्तुओं या घटनाओं से रक्षा के लिए एक बेहतरीन सिस्टम जो कि हर जीव में होता है। जैसे कि बिजली गिरने से किसी की मृत्यु हो गई हो, या तूफान से कोई भारी जानमाल का नुकसान हो गया हो आदिमकाल से ही हमारा मस्तिष्क उन बातों को याद करके अपने अंदर एक खास जगह स्टोर कर लेता था और जब ऐसी ही परिस्थितियां फिर से पेश आती थी तो वह भागने या समस्या के समाधान के लिए बाकि शरीर को तैयार रखता था। यही कारण है कि हम हार्ट अटैक से इतने डरते हैं जबकि हमारे मस्तिष्क ने उस व्यक्ति के हार्ट अटैक की घटना को हमारा जीवन बचाने के लिए याद किया था।

लोगों का डर तब और ज्यादा हो जाता है जब उनका हमउम्र मित्र या रिश्तेदार जो उनसे स्वस्थ था अचानक हार्ट अटैक से मर जाता है। व्यक्ति इस घटना को खुद से जोड़कर देखता है और भविष्य में ऐसे एक भी लक्षण के अपने शरीर में प्रकट होने पर हार्ट अटैक मान लेता है। उसका डर इन लक्षणों को और बढ़ा देता है क्योकि डर और अवसाद के भी बहुत से लक्षण वही होते हैं जो कि हार्ट अटैक के होते हैं।

प्रिय पाठकों आपको जान लेना चाहिए कि हार्ट अटैक की तरह ही लक्षण कई रोगों या समस्याओं में भी होते हैं जैसे- गैस, एसिडिटी, सर्वाइकल स्पॉन्डिलोसिस, खुन की कमी, डिप्रेशन, फोबिया, लेफ्ट साइड किडनी स्टोन आदि। अब अगर इनमें से कोई रोग है और आपको दर्द हुआ या अन्य कोई लक्षण महसूस हुआ तो आपका वह घातक अनुभव और डर मिलकर इसे और ज्यादा बढ़ाएंगे।

समस्या का समाधान क्या हो? समस्या का समाधान तो यही है कि अगर आपको हार्ट अटैक जैसे लक्षण प्रकट होते हैं तो किसी अच्छे डॉक्टर से मिले। यदि वह कहदे कि दिल में कोई समस्या नहीं है तो उसकी बात को पूरी तरह से मान ले भरोसा कर लें। यदि किसी और समस्या, जैसे गैस या सर्वाइकल स्पोंडिलोसिस से आप पीड़ित हैं तो उसका उपचार करवाएं। डरे नहीं, जैसा कि मैंने कहा कि यह डर आपकी सुरक्षा के लिए तैयार हुआ है तो आप अपने मस्तिष्क को समझाए कि वह चिंता न करे, यह एक मामूली गैस या एसिडिटी का दर्द है…और हाँ, उसको समझाए कि उसे इतनी फिक्र करने की आवश्यकता नहीं है। यदि आप आस्तिक हैं तो याद दिलाएं अपने मस्तिष्क को कि ईश्वर के तय किए गए समय से पहले उसे मृत्यु नहीं आ सकती।

हृदय की केअर करना हम सभी का फ़र्ज़ है लेकिन यह याद रखें कि डर दिल के लिए घातक है तो डरना छोड़िए और जीना शुरू कीजिए।

पुनश्च: मेरे पास एक बूढ़ी माँ अपने बेटे को इसी डर के चलते दिखाने आई। मैंने मज़ाक में पूछा कि कितनी बार आ चुका है आपको अटैक। उसने कहा कि 14-15 बार हो चुका है। उसकी माँ ने फौरन कहा कि देखो डॉक्टर साहब करता है न ये पागल जैसी बात, अगर अटैक होता तो तीन बार में ही खत्म कर देता है वो तो इंसानों को, और इसे 15 बार आगया। मैंने उससे कहा कि यही वह तथ्य है जो तुम्हें याद कर लेना चाहिए कि अटैक इतनी बार नहीं आता। यह तो सामान्य गैस और डर है जो तुम्हें सता रहे हैं। मैंने अपनी फीस उन प्यारी सी अम्मा को देदी। उन्होंने पूछा हमें क्यो दे रहे हो आप डाकसाब? मैंने कहा कि इलाज जिसने बताया इसपर उसी का हक़ है प्यारी अम्मा। वह लड़का इसी एक बात से ठीक हुआ जिसे उसकी मां ने बताया था और मैंने उसकी तस्दीक की थी।


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आज का युग खबरों का युग है। सैकड़ों न्यूज़ चैनल और हज़ारों की तादाद में अख़बार आज हमारे देश में प्रसारित एवं प्रकाशित होते हैं। टीआरपी का यह युग है, अर्थात् जिस चैनल को या अख़बार को जितनी अधिक टीआरपी या पाठक संख्या, उसके उतने ही ज़्यादा विज्ञापन देने वाले ग्राहक और जितने विज्ञापन उतनी ज़्यादा कमाई। हमें यह याद रखना चाहिए कि मीडिया चैनल या अख़बारों के लिये खबर एक व्यापार है और व्यापार में लाभ ही एकमात्र उद्देश्य होता हैं। लाभ के लिये मीडिया सनसनी रचता है, डर रचता है, ख़ौफ रचता है, रोमांच रचता है, ताकि ज़्यादा से ज्यादा दर्शक या पाठक आकर्षित हो। सुबह उठते ही हम पेपर पढ़ते हैं और रात को सोते समय न्यूज़ चैनल देखकर सोते हैं, अर्थात दिन की शुरूआत भी खबरों से और दिन का अंत भी खबरों से।

मीडिया द्वारा दिखाई जाने वाली खबरों में लगभग 98% खबरें नकारात्मक होती हैं। लूट, हिंसा, युद्ध, भ्रष्टाचार, बलात्कार, विस्फोट से चैनल सने होते हैं। हम रोज़ाना जब यही पढ़ते हैं और देखते हैं तो हमें यह यकीन हो जाता है कि सबकुछ ठीक नहीं है, हर तरफ बुराई फैली है, हर तरफ केवल नकारात्मकता है। यह सब हम इसलिये सत्य मान लेते हैं क्योंकि हमारा दिमाग इसी प्रकार पप्रोग्राम्ड है कि जों बातें इसे बार-बार सुनाई, दिखाई या पढ़ाई जाएगी, यह उसे सच मान लेगा। आप बार-बार इसे कोई नकारात्मक चीज़ दिखाएंगे तो यह नकारात्मकता को ही सत्य मान लेगा।

हमारे देश में अधिकांश देशवासी 6 से 8 न्यूज़ चैनल देखते हैं और 15 से 20 न्यूज पेपर में से एक या दो पढ़ते हैं। यानि कुल 20 से 30 मीडिया परिवार मिलकर हमारी सोच और हमारी विचारधारा को नियंत्रित कर सकते हैं, और कर रहे हैं। कितना घातक है ये कि कुछ गिनती के लोग हमारी सोच, हमारी विचारधारा को नियंत्रित कर रहे हैं। हमारी नकारात्मकता में वृद्धि हो रही है इसे हम एक उदाहरणों से समझते हैं –

आप आज बारिश में भीगने का आनंद ले रहे हैं अपने जीवनसाथी या बच्चों या मित्रों के साथ खूब मज़े, खूब आनंद के साथ। फिर आप रात को घर आकर टीवी खोलते हैं तो न्यूज आती है कि आज बिजली गिरने से 10 लोगों की मौत हो गई। फिर सुबह पेपर पढ़ते हैं तो उसमें भी अलग-अलग जगह बिजली गिरने से हुई मौतों की खबरें होती हैं। अब आप थोड़ा डरना शुरू होते हैं, बारिश से। ऐसे करते-करते बारिश के शुरूआत के एक महीने में कुल 8 से 10 खबरें आप बिजली गिरने की पढ़ते हैं तो अब आपका मन इसे एक आम सत्य मान लेता है और अब आप बारिश में भीगने या आनंद लेने या मौजमस्ती करने से डरने लगते हैं और धीरे-धीरे खबर-दर-खबर आपका यह डर बढ़ने लगता है और आप बिजली के डर के रोगी बन जाते हैं।

नकारात्मकता का डोज़ हमें रोज़ाना मीडिया के माध्यम से पिलाया जा रहा है और हम हर छोटी-छोटी बात से खौफज़दा हैं। हम डरे हुए हैं और फोबिया से मानसिक रोगी बनते जा रहे हैं। हम भीड़ से डरते हैं, हमें मासूम जानवरों से डर लगने लगता हैं, हम बारिश और छोटी-मोटी आँधियों से डरने लगे हैं, हम इंसानों से डरने लगे हैं, हम दूसरे धर्म या जाति के लोगों से डरने लगे हैं… संक्षेप में हम बहुत डरपोक होते जा रहे हैं।

मीडिया की नकारात्मकता से बचने के लिये क्या करें –

◆ सुबह उठकर ही अखबार पढ़ने से बचें, क्योंकि सुबह के समय हमारा मस्तिष्क सबसे अधिक संवेदनशील होता है। अखबार को दोपहर या शाम को पढ़ें।

◆रात में सोते समय न्यूज़ चैनल न देखें नहीं तो रात भर आपके विचारों में वही न्यूज़ घूमती रहेगी और यदि उससे नींद पूरी नहीं हुई तो समस्या और गंभीर हो जाएगी।

◆ नकारात्मक खबरों को न पढ़ें।

◆ केवल अपने काम की खबरों को ही ध्यान से पढ़ें बाकी खबरों को केवल सरसरी नज़र से पढ़ें या केवल हैडिंग पढ़कर छोड़ दें।

पुनश्च:- याद रखें दुनिया में यदि सभी ओर नकारात्मकता होती तो यह दुनिया कब की नष्ट हो चुकी होती। अब भी दुनिया सकारात्मकता बहुल है…. अच्छाई ज़्यादा है और बुराई नाममात्र की है-वास्तविकता में, लेकिन न्यज़ चैनल इसका विपरीत दिखाते हैं, क्योंकि खबरों की दुनिया में यही बिकता है मेरे प्रिय पाठकों।


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उस 35 वर्षीय महिला को सांस लेने में तकलीफ हो रही थी, छाती पर भारी पन, गले में घुटन, पेट के ऊपरी हिस्से में खाली खाली पन लगता था, बार बार मल त्यागने की इच्छा होती थी और नींद में कमी हो गई थी…। इन सभी समस्याओं से 3 वह महीने से परेशान थी। समस्या बढ़ती जा रही थी, टेस्ट होते जा रहे थे, डॉक्टर दवाई बदल रहे थे और वह डॉक्टर बदल रही थी… लेकिन नतीजा ज़ीरो। मैंने समस्या ध्यान से सुनी और पूछा कि आप हॉउस वाइफ हैं या कि वर्किंग वुमन? उसने जवाब दिया कि वह एक हॉउस वाइफ है और परिवार में पति और 2 बच्चे हैं। मैंने पूछा आप व्यस्त हाउस वाइफ हैं या फिर थोड़ी फुरसत में रहती हैं? उसने कहा कि सर दिन भर फ्री ही रहती हूं कोई ज्यादा काम नहीं है। मैंने पूछा कि आप फ्री समय मे क्या करती हैं? उसने कहा कि टीवी देखती हूँ ज्यादा समय। मैंने पूछा क्या देखना पसंद है आपको? उसके पति ने इस सवाल पर तुरंत जवाब दिया कि सर यह दिनभर टीवी पर क्राइम पेट्रोल और सावधान इंडिया देखती रहती है बस।

शायद हम समस्या की जड़ में पहुंच चुके थे। उस महिला की समस्याओं की वजह थी यही डरावने और शक़ पैदा करने वाले प्रोग्राम। हमारा मस्तिष्क इसी तरह प्रोग्राम्ड है कि इसे जो चीज बार बार दिखाई जाएगी वह उसको सत्य मानने लगेगा और उसे अपने आसपास महसूस करने लगेगा। इन प्रोग्राम्स में कुछ चुने हुए केसेज को लिया जाता है और उसे मनोरंजक और लोगो को आकर्षित और बांधे रखने के लिए थोड़ा थ्रिल और डर डाला जाता है सबसे कनेक्ट करने के लिए थोड़ी मनगढ़ंत स्टोरीज़ बनाई जाती है। यह सभी मिलकर डर को बढ़ा रहे हैं समाज में, भोले लोगों में, अनभिज्ञ और नासमझ लोगों में, बच्चों, युवाओं और खासतौर से महिलाओं में। आपका जीवनसाथी आपको दुश्चरित्र लगने लगता है, ज़ोर से अगर कोई दरवाज़ा बजा दे तो धड़कने बढ़ जाती हैं, रात में कोई बिल्ली ही आजाए किचन में तो लोगों को डकैतों के आने का शक़ हो जाता है, अपरिचित जगह जाने पर हर व्यक्ति आपको लूटेरों जैसा लगने लगता है, नए शहरों में टैक्सी का ड्राइवर आपको बलात्कारी या आपकी हत्या करने वाला लगने लगता है, आपकी बच्चों की देखरेख करने वाली भोली भाली आया में आपको एक क्रूर किडनैपर नज़र आने लगता है… आदि।

वह महिला भी इन्हीं सब में उलझ गई थी और बेवजह के डरो ने उसको तनाव से भर दिया था, उसका अवचेतन मन इन सब से परेशान था। वह नहीं जानती थी कि उसकी सभी समस्याओं के पीछे ये सब था, क्योंकि सकारात्मक विचारों की शक्तियों और नकारात्मक विचारों के नुकसानों को अभी विश्व के लगभग 95% लोग समझ ही नहीं पाए हैं। डर और तनाव हमारी मांसपेशियों को सख्त कर देते हैं जिसके चलते सांस लेने में पेट की मांसपेशियों से मदद नहीं मिलती और व्यक्ति पूरी तरह से सांस नहीं ले पाता और घुटन महसूस करने लगता है, पेट नकारात्मक और डरावने विचारों को बर्दाश्त नहीं कर पाता और वह आईबीएस जैसे रोगों से ग्रस्त हो जाता है जिसमें बार बार मल त्याग करना पड़ता है, पेट में मरोड़ होती हैं और एसिडिटी भी।

उस महिला या उस जैसे कई रोगियों की समस्याओं का हल है कि उसे उन डरावने और उसके जीवन में कोई महत्व नहीं रखने वाले प्रोग्राम से दूर कर देना…क्योंकि सकारात्मक विचारों का प्रवाह, थोड़ी शांतिदायक दवाई और समय इन डरों को नष्ट करके उसके जीवन को पुनः सामान्य कर देंगे। आप भी इन प्रोग्राम से दूरी बना लें, यदि आप कोई इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर नहीं है तो। अगर आप किसी ऐसी नौकरी में हैं जिसमें ऐसे प्रोग्राम देखकर आपको अपराधियों को पकड़ने की ट्रिक मिलती है तो ये आपके लिए फायदेमंद हैं अन्यथा ये आपके किसी काम के नहीं। लोगों पर भरोसा कीजिए क्योंकि दुनिया में अब भी अच्छे लोग बहुत ज्यादा संख्या में हैं बुरों की तुलना में। सकारात्मक सोच को विकसित करें, सकारात्मक प्रोग्राम देखें जैसे मेरा फेवरेट ” मेन वर्सेज वाइल्ड”। 


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मनुष्य जीवन में स्वप्न एक सत्य है। हम सभी सपने देखते हैं, रोज़ाना। कुछ हमें याद रहते हैं और कुछ हमें पता ही नहीं रहते कि हमने देखे थे। सपने हमारे अवचेतन मस्तिष्क की एक निराली दुनिया है। सपने हमारी आकांक्षा, अनुभव और डर का परिणाम होते हैं। जहां आप सो रहे हैं उसके आसपास के माहौल का भी सपने से गहरा नाता होता है। जैसे यदि आप पर कोई पानी छिड़क रहा है तो आपको नींद खुलने के ठीक पहले बारिश का सपना या शावर में नहाने का सपना आ सकता है, ठंडी हवा चलने पर हो सकता है कि आप सपने में बर्फीली वादियों की सेर करने लगे हो।

अब सवाल यह है कि क्या सपने हमारे स्वास्थ्य पर असर डालते हैं? तो मैं कहूंगा हाँ, सपने सेहत पर असर डालते हैं। हमारे शरीर से सपने जुड़े होते हैं, जैसे डरावने सपने आने पर धड़कन का तेज़ हो जाना, उत्तेजित सपने आने पर स्वप्नदोष का हो जाना….आदि, आदि, बताते हैं कि सपने शरीर की फिजियोलॉजी को प्रभावित तो करते हैं।

मैं यहां अपने तीन रोगियों को याद करना चाहूंगा-

1. मेरी एक रोगी डिप्रेशन का इसलिए शिकार हुई थी कि उसे बार बार उसके इकलौते पुत्र की अर्थी सपने में दिखाई देती थी। उसे लग रहा था कि उसका सपना सच हो जाएगा तो क्या होगा। यही डर उसे एक रोगी बना चुका था।

2. मेरे एक रोगी को सपने में यह दिखा कि कुछ बुरी आत्माओं ने उसपर चमगादड़ बनकर हमला कर दिया है और उसे पूरा नोच डाला। जब घबरा कर वह उठा तो उसे चमगादड़ भागते हुए दिखे और उसके अंदर से रक्त की बदबू आ रही थी (ऐसा उन्होंने कहा, शायद वे सपने में ही उठे थे लेकिन उन्हें यह यक़ीन हो गया था कि उन्होंने वास्तव में वह अनुभव किया था)। इस सपने के बाद वे एक मनोरोगी बन चुके थे और डॉक्टरों के पास उनके परिजन लाते तो वे किसी बड़े तांत्रिक के पास जाने की ज़िद करने लगते।

3. एक रोगी को सपने में दिखाई दिया कि उसके प्राइवेट पार्ट के ऊपर, पेट के निचले हिस्से से कीड़े निकल रहे हैं… अनगिनत। उसका कहना था कि यह उसके पाप के कारण हुआ है। क्योंकि उसने एक महिला से अवैध संबंध बनाए थे और अब उसे डर है कि वह एड्स जैसी किसी बीमारी से पीड़ित होने वाला है और ऐसे ही कीड़े उसके अंदर आने वाले हैं।

उपरोक्त तीनों ही केस अपने सपनों के कारण रोगी बने थे। इनके सपनो की वजह को फ्रायड के सिद्धांत से समझ सकते हैं कि, “स्वप्न हमारी दबी हुई आकांक्षाओं और डरो का परिणाम होते हैं।” यह तीनों ही केस अपने डरो के कारण ऐसे सपने देख पाए इसके परिणाम स्वरूप उनके डर में बढ़ोतरी हुई और उनके मस्तिष्क ने उन्हें सच माना और उन्हें बना दिया रोगी। मेरी एक रोगी तो अपने एक सपने के कारण अपना खूबसूरत घर बेचने वाली थी जिसमें उसे यह दिखाई दिया था कि उनके बेडरूम के पास वाली खिड़की के ठीक नीचे जमीन में एक आत्मा है और वह उसमें से प्रकट होकर उसे, उसके पति और बच्चों सभी को तबाह कर देना चाहती है।

हमारा अवचेतन इसी तरह से प्रोग्राम्ड है कि यह अपने डरो को सही साबित करने के साक्ष्य या सबूत इकट्ठे कर करके लाता है और हमें यक़ीन दिला देता है कि यह डर सच्चा है क्योंकि मानव विकास यात्रा में डर ने इंसानों की जान बचाई थी हिंसक पशुओं से, प्राकृतिक आपदाओं से और प्रतिद्वंद्वी इंसानों से। वह शत्रुओं के खिलाफ सबूत इकट्ठा करता है ताकि हम सतर्क होकर अपनी जान बचा सकें। लेकिन अब ऐसी परिस्थितियों के न होने के बावजूद उसने डरना नहीं छोड़ा है। हमारा अवचेतन हमें सुरक्षित रखने के लिए निरंतर वर्तमान और भविष्य के खतरों से हमें सचेत करता रहता है। बात तब बिगड़ जाती है जब हम सही औऱ गलत खतरों में अंतर करने की अपनी बेहतरीन इंसानी काबिलियत को भूल जाते हैं और बिना सिर पैर की बातों पर यकीन करने लगते हैं…और बीमार हो जाते हैं।

हमारे सपने यदि हमें डराएं तो पहला कदम तो यह उठाएं कि अपने मस्तिष्क को यह बताएँ कि यह केवल सपना था और मेरे ही बेकार और बेवजह के डरों के कारण आया था, इसलिए चिंता की बात नहीं है, यह कोई हकीकत नहीं है। यह वाक्य आप कम से कम उठकर तीन बार दोहराए। ईश्वर को धन्यवाद दें कि यह केवल सपना था और अपनी या जिसके बारे में आपने सपना देखा था उसकी रक्षा की प्रार्थना करके वापस सो जाएं या सुबह ही गई हो तो उठ जाएं। ऐसा करने से सपनों से आपको कोई भी खतरा नहीं रहेगा, वे आपको रोगी नहीं बनाएंगे और न आपको मानसिक तनाव देंगे। याद रखे- “सपने तभी नुकसान पहुंचाते हैं जब हम उन्हें सपने मानना बन्द कर देते हैं।”


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मेरे रोगी जो कि आज से 20 साल पहले तक शहर के एक मिडिल क्लास मोहल्ले में रहते थे। किस्मत ने पलटा खाया और वे धनी हो गए। सबसे पहला कदम आमआदमी अमीर बनने के बाद यह उठाता है कि वह अमीर जैसा दिखने के जतन करता है, गाड़ी, बंगला….आदि, आदि। उन्होंने भी ये सब किया तथा एक कदम और उठाया कि अपना घर शहर की सबसे अमीर कॉलोनी में बनवा लिया। शायद वे खुश हुए होंगे उस वक़्त क्योंकि वह सफलता का अपना एक पैमाना है जो दुनिया ने तय किया है। पैमानों का भी अपना मनोविज्ञान है बहुत जटिल भी और बहुत सरल भी। मैं हमेशा कहता और लिखता आया हूँ कि अपनी सफलता के पैमाने खुद तय कीजिए और जीवन का आनंद लीजिए। दूसरों के बनाए सफलता के पैमाने बहुत महंगे पड़ते हैं। खेर, वे जब पॉश कॉलोनी आये तो यहां एक बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ उस पुरानी कॉलोनी की तुलना में और वह था लोगों का आपस में एक दूसरे से कोई बातचीत न करना। पॉश कॉलोनी के लोग की एक विशेषता होती है कि वे एक दूसरे से बात नहीं करते, उन्हें एक दूसरे से कोई मतलब नहीं रहता। इन कॉलोनी के निवासी एक दूसरे के दुःख तकलीफ और खुशियों में भी शरीक नहीं होते। इन कॉलोनियों के लोग पालतू जानवरों को खूब पालते हैं शायद इंसानों की कमी को पूरा करने के लिए लेकिन इंसानों का कहाँ कोई बदल होता है। इन कॉलोनियों के बच्चे भी ऐसे ही होते हैं, वे एक दूसरे के साथ नहीं खेलते। उनके पास खिलौने तो ढेर सारे होते हैं लेकिन दोस्त बिल्कुल नहीं। यह मनुष्य के सामाजिक होने का अंतर्विरोध है और इसी अंतर्विरोध के चलते उनके तीनों बच्चे उस पुराने मोहल्ले की तुलना में यहां अकेले पड़ गए और उनके इस एकांत ने उन्हें घेर लिया बचपन से जवानी तक और बना दिया डिप्रेशन और डर का रोगी। तीनों बच्चों की न खत्म होने वाली समस्याओं और उनके व्यवहार को देखकर उनकी माँ भी डिप्रेशन की रोगी बन चुकी है।

यह 4 मानसिक रोगी पॉश कॉलोनी कल्चर के कारण बीमार हुए हैं। ये परिवार समाज और लोगों से दूर हुए और एकांत का शिकार हो गया। पॉश कॉलोनी में सभी अमीर होते हैं इसलिए आपकी सफलताएं आपको दिखाई देना बंद हो जाती है, जैसे कि आप गरीब मोहल्ले में कार खरीद कर लाएंगे तो बहुत सारे लोग बधाई देने आजाएँगे और आपको अपनी सफलता महसूस होगी। लेकिन अमीरों की बस्ती में ये सब कुछ मायने नहीं रखता। यही वजह है कि आप वहाँ कम खुश रह पाते हैं। आपके दुःख, तकलीफ या खुशियां देखकर आपके पास कोई नहीं आता इसलिए आप खुद को अकेला और बेसहारा महसूस करने लगते हैं। धीरे धीरे आप चिंतित, तनावग्रस्त औऱ डरपोक हो जाते हैं।

आपको क्या करना चाहिए? पॉश कॉलोनी के लोगों को चाहिए कि वे लोगों से मेलजोल बढ़ाए, सच्चे मित्र बनाएं, रिश्तेदारों के फंक्शन में शामिल हो, गरीब बस्तियों और गरीबों के पास जाएं, लोगों की मदद करें, प्रकृति से नजदीकियां बढ़ाए, पालतू जानवर पालें और अंत में सबसे प्रमुख कि आप सच्चे धार्मिक बन जाएं। अगर आप भी पॉश कॉलोनी में रहने का सोच रहे हैं तो एक बात याद रखियेगा कि, “ये पॉश कॉलोनियाँ डिप्रेशन के रोगियों की संख्या के मामले में भी पॉश होती हैं।”


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आपके दोस्त को बिज़नेस में भारी नुकसान हो जाता है आप जाकर उसे हिम्मत दिलवाते हैं कि फ़िक्र मत करो तुम्हारे पास एक बेहतरीन दिमाग और तजुर्बा है जिसकी बदौलत तुम फिर से अब ठीक कर लोगे। आपका बेटा परीक्षा में अच्छे अंक नही ला पाने के कारण निराश है, आप उसे कहते हैं कि बेटे अंकों से तुम्हारी काबिलियत नहीं आंकी जा सकती, तुम अद्भुत हो और असीमित प्रतिभा के धनी हो। आपके रिश्तेदार को एक गंभीर बीमारी घेर लेती है, आप उसे दिलासा देते हैं कि इतनी क्यों चिंता करते हैं कोई लाइलाज बीमारी थोड़ी हो गई है आपको, इलाज मौजूद है तो चिंताएं कैसी?

आप लोगों को समझाने, उन्हें प्रेरित करने और उनकी हौंसला अफजाई करने में निपुण हैं, वाकई काबिले तारीफ है। यह एक अद्भुत प्रतिभा है जिसके आप मालिक हैं, लेकिन क्या आप खुद को प्रेरित करते हैं, क्या आप खुद को हौसला दिलवाते हैं, क्या आप खुद को हिम्मत देते हैं, क्या आप खुद को समझाते हैं, क्या आप खुद को डर से निपटने के लिए तैयार करते हैं…? शायद नहीं। हम डरे हुए हैं, निराश हैं, चिंतित हैं, हिम्मत खो चुके हैं, अवसादग्रस्त और अकेले हैं… क्यों? क्योंकि हम खुद से बात नहीं करते, हम खुद को समझाते ही नहीं हैं, हम कभी खुद से रूबरू ही नहीं होते, हम कभी खुद को बताते ही नहीं हैं कि हम कितने क़ाबिल और लायक हैं, हमने कितनी समस्याओं को यूं ही चुटकियों में हल कर दिया है, हम कितने बेहतरीन दिमाग के मालिक हैं जिसने अनगिनता मुश्किलों का निपटारा किया है, हम एक बेहतरीन इंसान हैं और अतुलनीय हैं, क्योंकि आजतक हम जैसा कोई इस धरती पर पैदा ही नहीं हुआ।

मैंने अपने रोगियों और परिचितों को देखा है जो कि अवसादग्रस्त या डिप्रेशन के चंगुल में फसे होते हैं, वे कभी खुद से बात नहीं करते, वे कभी खुद को दिलासा नहीं देते, वे कभी नहीं बताते कि वे सारी समस्याओं से लड़कर जीतने में सक्षम हैं…। बस यहीं एक काम है जिसे यदि ठीक ढंग से करना शुरू कर दिया जाए तो मानसिक तनाव काफी हद तक खत्म हो सकता है और एक आनंदमय जीवन जीया जा सकता है। आप जब बात करेंगे खुद से तो पहले से प्रोग्राम्ड हमारा दिमाग नकारात्मक ऊर्जा, परिणाम और छवि ही दिखाएगा लेकिन जब आप अपनी छोटी बड़ी कामयाबियों और तथ्यों को याद करेंगे तो मस्तिष्क आपके सकारात्मक सुझावों और आदेशों को स्वीकार करने लगेगा। आपके मस्तिष्क को नकारात्मक संदेश बचपन में आपके पैरेंट्स, टीचर्स, दोस्त, पड़ोसियों और रिश्तेदारों से मिलें होंगे। जो जो भी नकारात्मक संदेश उन्होंने आपको दिए हैं उनका नाम लिखकर उन्हें एक पेज पर लिखिए बारी बारी रोज़ाना फिर उस कागज़ को जलाकर उसकी भस्म को मुट्ठी से मसलकर फूंक दीजिये। यह आपके लिए बहुत कारगर होगा इससे आपकी नेगेटिव प्रोग्रामिंग खत्म होगी। यदि कोई गलती पहले आपसे हुई थी तो उसपर रोना और बिल्बिलाना बन्द कीजिए और उसे एक अनुभव मानिए। अनुभव आपके लिए लाभदायक होते हैं, इसलिए उन गलतियों को भी सकारात्मक रूप में लीजिए।

एक सत्य स्वीकार कीजिए कि यह एक दिन में नहीं होगा थोड़ा समय देना होगा, लेकिन परिणाम तो पहले दिन से ही महसूस होने लगेंगे। आपको रोज़ाना स्वयं से बातें करना ही चाहिए। कितना अजीब है न कि हम दुनिया भर से बातें करते हैं लेकिन खुद से कभी दो प्यार और काम की बातें नहीं करते…और ऐसे ही ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं।


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यह धरती 70% जल युक्त है और उसी तरह हमारा शरीर भी 70% जल से ही बना है। जल का बहुत ज़्यादा महत्व है। लगभग सभी धर्मों ने जल को बहुत महत्व दिया है। हिन्दू धर्म में जल के प्रबंधन के लिए देवराज इंद्र ने स्वयं को नियुक्त किया है तो इस्लाम और ईसाईयत में इस हेतु विशेष फरिश्तों की नियुक्ति अल्लाह ने बारिश के लिए की है। जल ही जीवन है, यह अब भी सत्य है लेकिन अब वह जानलेवा भी हो गया है। हम सबने मिलकर जल को ज़हरीला बना दिया है। अब यह जल लगभग 60,000 से ज़्यादा ज़हरीले केमिकल्स से युक्त हो चुका है जिसमें कई जानलेवा कैंसरकारक तत्व भी शामिल हैं। पानी में अब कई घातक बैक्टीरिया, प्रोटोज़ोआ और वायरस भी हैं। कई जलस्रोतों में सुपरबग भी काफी मात्रा में पाई गई हैं। पीलिया, टायफॉइड, ज़िआर्डियासी, अमीबीएसिस आदि जल से होने वाले सामान्य रोग हैं लेकिन अब कैंसर, किडनी फेलियर जैसे रोग भी पानी से हो रहे हैं। लेड और आर्सेनिक जैसे घातक मेटल्स भी अब पीने के पानी में आम है।

खेती में उपयोग किये जाने वाले कीटनाशक और पेस्टीसाइड भी बारिश में रिसकर नदी, तालाब, पोखर और झीलों के पानी में मिलकर स्थिति को और घातक बना रहे हैं। उद्योगों से निकलने वाले कचरे बेधड़क पानी में मिलाएं जा रहे हैं और सभी जीवों को नष्ट करते जा रहे हैं… कचरे से मृत्यु या यूं कहें कि कचरे से ‘मास जीनोसाइड’ हो रहा है।

अस्पतालों से निकलने वाले वेस्ट भी पानी में मिल रहे हैं और न चाहते हुए भी लोग दवाओं के अंश पानी के साथ पी रहे हैं, जिसमें प्रमुख हैं एंटीबायोटिक, पैनकिलर्स, स्टेरॉइड और हार्मोनल मेडिसिन। एंटीबायोटिक पानी में घुलकर बैक्टेरिया को रेसिस्टेंट करके पूरी दुनिया के लिए खतरे की घंटी बजाने वाली सुपरबग पैदा कर रही हैं। हमारे नलों से आने वाला पानी हमें बीमारियों की खान बना रहा है। पानी कितना जानलेवा हो गया है यदि यह आपको विस्तार से जानना है तो आपको आंखों को खोलकर रख देने वाली रॉबर्ट मोरिस की किताब “द ब्ल्यू डैथ” अवश्य पढ़ना चाहिए।

म्युनिसिपल के नलों से आने वाले पानी की इतनी बुराई सुनकर आप यदि धनी हैं तो बॉटल बंद पानी खरीदने के बारे में सोच रहे होंगे। लेकिन याद रहे दोस्तों कि पैसों से खरीदी गई हर चीज लाभदायक हो यह ज़रूरी नहीं है। हर महंगी चीज अच्छी होती है, यह एक भ्रांति है। आज हर अमीर गरीब बॉटल का पानी खरीदकर पीता है ज़िन्दगी में कभी न कभी…अक़्सर सफर में। कई शोधों में पता चला है कि बोतलबंद पानी में एक घातक रसायन पाया जाता है जिसका नाम है – बिस्फेनॉल ए (BPA)। रिसर्च बताती हैं कि इसे पीने से बच्चों के दिमाग का विकास रुक जाता है और व्यवहार संबंधित समस्याओं से वह ग्रस्त हो जाता है। 2010 के ह्यूमन रिप्रोडक्शन जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक एक वर्ष से अधिक BPA युक्त पानी पीने वाले पुरुषों में इरेक्टाइल डिस्फंक्शन (नपुंसकता) का जोखिम चार गुना बढ़ जाता है और सेक्स में उनका रुझान घट जाता है। अमेरिका में बिकने वाले 93% बोतलबंद ब्रांडेड पानी में BPA पाया गया है। हमारे देश में जागरूकता के अभाव में ऐसे रिसर्च कम ही होते हैं और अगर हो तो उसके परिणाम आप समझ ही सकते हैं कि कितने चौंकाने वाले होंगे। तो बोतलबंद पानी से भी उम्मीद न रखें।

मेरे अनुसार इस धरती पर सबसे शुद्ध पानी बारिश का पानी है क्योंकि यह वाष्पीकरण के द्वारा शुद्ध होकर बादलों में जमा होकर बरसता है इसलिए जितना ज़्यादा हो इसी का सेवन करें। बारिश का पानी न होने पर नल का पानी बेहतर है। इसके लिये आप प्यूरीफायर का प्रयोग कर सकते हैं। इसमें भी कार्बनब्लॉक फ़िल्टर और रिवर्स ऑस्मोसिस वाले बेहतर हैं। पानी को फिल्टर से निकालकर मिट्टी के मटके में रख दें ताकि मिट्टी के मिनरल्स उसमें मिल जाएं। पानी को पीने से पहले उसमें नींबू के रस की 2 बूंद मिलाकर 2 मिनट के लिए रख दें इससे भी बहुत सी अशुद्धि नष्ट हो जाती है और हमें बेहद ज़रूरी विटामिन सी भी मिल जाता है।

पानी कितना और कब पियें-

इंटरनेट पर अगर आप यह सवाल पूछेंगे तो वह हज़ारों परिणाम आपके सामने खोल देगा। कोई कहेगा शरीर के वज़न का इतना भाग लीजिए, कोई 5 लीटर, कोई 4 लीटर, कोई 6 औंस कोई 7 औंस…आदि, आदि। वे सही भी हैं लेकिन आप कब पानी पियें और अभी जो मात्रा पी रहे हैं वह काफी है या नहीं वह भी जान सकते हैं-

● सबसे पहले तो देख लें कि क्या आपके होंठ और मुंह सूख रहे हैं, यदि हाँ, तो आपको पानी अभी फौरन पीना चाहिए।

● दूसरा यह देखें कि आपके यूरिन का रंग कैसा है गाढ़ा पीला या मटमैला। यदि हाँ, तो आप अभी जितना पानी पी रहे हैं वह कम है। यदि यूरिन का रंग सामान्य हल्के पीले रंग का है तो आपके द्वारा पी जाने वाली पानी की मात्रा ठीक है।

● कमज़ोरी महसूस हो और पानी पीने से वह कुछ ही मिनट में दूर हो जाए तो इसका मतलब है कि आप पानी ज़रूरत से कम पी रहे हैं।
पानी को देखकर मुंह में पानी आ जाए तो भी समझ लीजिए कि अभी आपके शरीर में पानी की कमी है।

पुनश्च: डिहाइड्रेशन जानलेवा और नाकाबिले बर्दाश्त होता है इसीलिए जब प्यास लगे तो पहला कदम तो उपलब्ध पानी पीने का ही हो लेकिन फिर उसके बाद दूसरा कदम स्वच्छ पानी तलाशने का हो। आप हर वीकेंड पर घूमने जाते हैं। मैं चाहता हूँ कि एकबार आप अपने शहर के वॉरप्लांट भी देखने जाएं और पड़ताल करें कि आपको शुद्ध पानी कैसे दिया जा रहा है। आप नेताओं से हॉस्पिटल बनाने की मांग करते हैं लेकिन इसबार उनसे शुद्ध पानी की मांग कीजिए ताकि आप बीमार पड़े ही ना और हॉस्पिटल की ज़रूरत कम से कम पड़े…क्योंकि शुद्ध जल पाने के लिए उसे पीने वाले का जागरूक होना पहली शर्त है।


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